‘देह ही देश’

पुस्तक समीक्षा 

कुछ किताबें इस कदर झकझोर देती हैं कि आप अपनी अधूरी समझ और टूटी-फूटी भाषा के साथ ही कुछ कहने, लिखने को मजबूर हो जाते हैं. ऐसी ही एक किताब है ‘देह ही देश’. यह किताब लेखिका गरिमा श्रीवास्तव की डायरी है जो क्रोएशिया प्रवास से लौटकर वहां लिए गए लोंगों के साक्षात्कार के आधार पर लिखी गयी है. छोटे-छोटे देशों का समूह यूगोस्लाविया, गृहयुद्ध के दौरान पांच छोटे-छोटे भागों में विभाजित हो गया.

क्रोएशिया, यूगोस्लाविया से अलग हुआ छोटा सा देश है, जिसकी त्रासद गाथा इस डायरी में दर्ज है. सर्विया की जनता, जो क्रोएशिया से मैत्रीपूर्ण और वैवाहिक संबंधों से जुड़ी हुयी थी, को अमरीका की आर्थिक पाबंदियों और नाटो की बमबारी ने तबाह कर दिया. फिर शुरू हुआ आपसी युद्ध जो सर्विया ने क्रोएशिया और बोस्निया से लड़ा-. सर्विया के राष्ट्रपति मिलोसोबिच की कूटनीति की शिकार वहां की जनता और सेना ने उनके मंसूबे को नहीं मसझा और उग्र राष्ट्रवादी एजेंडे पर चल पड़ी, जिसमें एक ही नस्ल सिर्फ ‘सर्बों’ के लिए जगह की संकल्पना थी.और शुरू हुआ क्रोएशिया और बोस्नियाई लोगों का संहार. एक भीषण युद्ध जो क्रोशिया और बोस्निया की महिलाओं की योनि को शर्मशार करने के लिए भी लड़ा गया.

इस डायरी को पढ़ते हुए लगा कि यह किताब स्त्रियों की युद्ध विरोधी वैचारिकी को, उसकी ऐतिहासिक परम्परा, जो क्लारा जेटकिन और रोजा लक्जेम्बर्ग के समय से चली आ रही है, को आगे बढ़ाएगी. स्त्रियां साम्प्रदायिक नहीं होतीं हैं और साम्प्रदायिकता के आधार पर हुए दंगों ने यह सिद्ध कर दिया है कि युद्ध और साम्प्रदायिकता ने स्त्री को ही अपना निशाना बनाया है. स्त्री की देह ही देश और धर्म का प्रतिरूप बन जाती है. यदि यह किताब किसी तरह सामान्य पाठक तक पहुंच पायी तो उनके भीतर छद्म राष्ट्रवाद के रूप में सोये उस हिंस्र पशु को जो उन्हें चेतन-अवचेतन रूप में युद्ध के पक्ष में तर्क उपलब्ध करा रहा है, को एक बार सोचने समझने को उद्वेलित करेगी. इसकी सहज और प्रवाहमयी भाषा किसी अरुचि वाले पाठक तक को बांध लेगी.

पढ़ना शुरू करने से पहले लगा था कि यह डायरी बैठे-बैठे ही घुमा लायेगी यूरोप का एक देश, उसकी खूबसूरत बर्फीली प्रकृति जो मैदानी क्षेत्र में रहने वालों की हमेशा चाहत होती है, लेकिन यहां तो दर्ज है बर्फ सा निस्तब्ध, जमा हुआ एक पूरी नस्ल का जीवन; उनके कभी न भरने वाले घाव; न्याय से बिगलित उनका मन; ताकतवर की तानाशाही और लूट की प्रवृत्ति से पैदा क्रूर विचार. इसमें दर्ज है क्रोएशिया की स्त्रियों की लहूलुहान आत्मा जो आपको झिझोड़कर रख देगी. इस किताब में आपको नजर आएंगी असहाय, निरुपाय खड़ी क्रोएशिया की हजार-हजार औरतें जो कभी अपने ही पड़ोसियों और कभी सैनिकों द्वारा प्रताडि़त की गयी हैं. जहां उनके दुधमुहें बच्चों को उनसे छीनकर मार दिया गया है. यहां नजर आएगा अपनी नस्ल का विस्तार करने का मर्दवादी विचार जिसने सैनिकों को हैवान बना दिया है. यहां की औरतें अपने ही खून की नदी में डूब गयी हैं. नजर आयेंगे वे बच्चे जिनके प्रति क्रूरता की सारी हदें तोड़ दी गयी हैं. 

मैं स्त्री होने के नाते डर गई हूं. मुझे अपना देश ही युद्ध का मैदान दिखाई दे रहा है. मैं इस पुस्तक की उन तमाम स्त्रियों एमिना, सेम्का, सेदा ब्रानिच, जिबा, इमोजेन आदि को याद करना चाहती हूं जिन्होंने दुबारा मुस्कुराने का हुनर सिखाया है. मैं दुनिया की उन तमाम स्त्रियों की जिजीविषा को खुद में जज्ब करना चाहती हूं. 

इस पृथ्वी पर यह कोई पहला देश नहीं है, जिसका इतिहास इतना भीषण, दर्दनाक, खून और चीखों से लथपथ है. यह पहला देश नहीं जिसने स्त्रियों की देह को ही युद्ध का मैदान समझा. हमारा अपना भारत-पाक विभाजन, जिसमें स्त्रियां कैसे, कब युद्ध और बदले का आसान माध्यम बन गईं उन्हें पता ही नहीं चला. बंगलादेश की स्त्रियों का पाकिस्तानी सेनाओं द्वारा बलात्कार कब युद्ध का एक अनिवार्य साधन बन गया उन्हें भी नहीं पता. फिलिस्तीन, इराक आदि जहां-जहां वहशी महत्वाकांक्षाओं ने अपना फन फैलाया वहां का इतिहास ऐसे ही लहूलुहान है. वहां की स्त्रियों का दर्द क्रोएशिया की स्त्रियों के दर्द, प्रताड़ना से हूबहू मिलता है फिर रंग उनका जैसा भी हो, मजहब उनका कोई भी हो. 

यह पुस्तक मुझे क्रोएशिया की स्त्रियों के नाते बांधे रही है या एक स्त्री के नाते यह अभी तय कर पाना मेरे लिए मुश्किल है. इस किताब को पढ़ते हुए क्यों सोनी सोरी और मनोरमा देवी याद आ रही हैं क्यों पेग्दापल्ली, चिन्न्गेलुर, पेद्दगेलुर, गुंदम, बर्गीचेरी गांव की तमाम आदिवासी लड़कियां याद आ रही हैं जिनको मैंने कभी देखा ही नहीं जिनकी रिपोर्ट कभी छपी ही नहीं जिनको न्याय कभी मिला ही नहीं जो अभी ठीक से जवान हुई ही नहीं. मुझे गुजरात, मुजफ्फ़रनगर आदि दंगों में प्रताडि़त स्त्रियां क्यों याद आ रही हैं ,जबकि कोई युद्ध खुलकर लड़ा ही नहीं गया. क्या इसलिए कि वह भी क्रोएशिया की औरतों की तरह ही प्रताडि़त की गई हैं? क्या इसलिए कि उनकी देह को हमारी अपनी ही पुलिस और सेना के बूटों ने रौंद दिया? या इसलिए कि उनके रक्षक लोगों ने ही उनकी योनि में पत्थर भर कर उनके स्त्री होने को अपमानित किया? जैसे क्रोएशिया में भेजी गयी शांति सेना ने उनकी देह को अपने भारी बूटों से कुचल दिया था, उन्हें देह व्यापार के लिये मजबूर किया था?

गरिमा श्रीवास्तव लिखती हैं कि -‘क्रोएशिया और बोस्निया के खिलाफ सिर्फ इसलिए युद्ध लड़ा गया कि वहां के नागरिकों का जीवन दूभर हो जाय, वो खुद ही अपनी जमीन ,अपना खेत, घर छोड़कर चले जाएं’. तो क्या आज तक जो भी युद्ध हुए वे सिर्फ और सिर्फ एक दूसरे की संपत्ति पर कब्जे के लिए लड़े गये? तो फिर स्त्रियों से बलात्कार क्यों किये गए? पुरुषों की तरह स्त्रियों को, किशोर और जवान लड़कियों को मार क्यों नहीं दिया गया लड़कों की तरह? गरिमा जी लिखती हैं कि -‘‘इतना तो तय है कि सामूहिक बलात्कार को युद्धनीति के रूप में इस्तेमाल किया गया जिसके तीन लाभ थे. पहला तो आम जनता में भय का संचार करना ,दूसरा नागरिक आबादी को विस्थापन के लिए विवश करना और तीसरा सैनिकों को बलात्कार की छूट देकर पुरस्कृत करना.’’ तो जहां-जहां युद्ध होगा, युद्ध की सम्भावना होगी, चाहे वह आतंरिक युद्ध हो जो देश की सीमाओं के भीतर ही तमाम जातियों, नस्लों और धर्मों के बीच प्रछन्न या खुले रूप में लड़ा जा रहा है या फिर बाह्य जो किसी अन्य देश से लड़ा जायेगा उन सब में स्त्रियों का सामूहिक बलात्कार, यौन उत्पीड़न होना तय है. तो क्या आदिवासी लोगों को उनके जल-जंगल-जमीन से विस्थापित करने का जो पूंजीवादी खेल चल रहा है और वहां स्त्रियां सशक्त प्रतिरोध रच रही हैं तो उनका बलात्कार भी एक हथियार की तरह (युद्धनीति के तहत) किया जा रहा है?

भारत में और अन्य देशों में भी बलात्कार को लेकर अनेक पुरुषवादी धारणाएं प्रचारित की गयी हैं, कि बलात्कार का अमुक-अमुक कारण होता है, जिसमें लड़कियों के कपड़े ,उनके हंसने-बोलने, उठने-बैठने के तरीके तक को बताया जाता है. नेताओं के तमाम बयान भी आते रहे हैं, जैसे, ‘पुरुष का कभी-कभी अपनी भावनाओं पर से नियंत्रण खो जाता है’, ‘लड़के हैं गलती हो जाती है’ आदि. लेकिन इस पुस्तक को पढ़ते हुए यह बात और पुष्ट हुई कि बलात्कार पुरुष द्वारा स्त्री को अपनी ताकत का गुलाम बनाने, अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने और युद्ध में युद्धनीति के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. 

मैंने इस बीच जिन पुस्तकों को पढ़ा, उनमें यह डायरी मेरी संवेदना के सबसे नजदीक रहेगी. मेरी नजर में यह पुस्तक जीवन और मृत्यु ,संघर्ष और प्रताड़ना का जीवंत दस्तावेज है. आप इसमें आततायी का चेहरा भी देख सकते हैं और जीने की जिद्दी धुन भी. 

- अनुपम सिंह

(पुस्तक: देह ही देश, लेखक: गरिमा श्रीवास्तव, प्रकाशक: राजपाल एंड संस)

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