सावित्रीबाई फुले पुस्तकालय इब्तिदा सफर की जो कारवां बने
ऐसी एक पढ़ने-लिखने की जगह बनाने का सपना. हममें से, जो मिलकर इसे शुरू कर सके. अलग अलग लोगों ने अलग समय, अलग स्थान पर देखा था. सिलसिलेवार तरीके से बयां करने की कोशिश की जाए तो विचार रूप में इस सपने को साझा करना और इस पर अमल करने की योजना बनाने की शुरुआत प्रणय जी (जन संस्कृति मंच) के साथ बातचीत से हुई. ऐसे पुस्तकालयों की स्थापना तब और भी जरूरी महसूस होने लगी जब हमारे समाज से पढ़ने की संस्कृति तेजी से या तो विलुप्त होने लगी या भ्रष्ट होने लगी. इस बात को तीन तरह से समझा जा सकता है. एक, ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में पुस्तकालयों का नितांत अभाव है. ऐसे इलाकों में मूलतः दो तरह का तबका रहता है. एक, जो बेहद गरीब है और पढ़ने के लिए पैसे खर्च करने की स्थिति में नहीं है, रोजी-रोटी का सवाल ही उनके लिए इतना बड़ा है कि पढ़ने के लिए पैसे खर्च कर पाना उनके लिए संभव नहीं. खासकर लड़कियों के लिए, जिनके लिए स्कूली पढ़ाई भी अधिक दिनों तक जारी नहीं रह पाती. दूसरे, वह तबका है जो अपनी लड़कियों की स्कूली पढ़ाई का कम से कम स्वांग तो रचा पाते हैं. स्वांग इसलिए कि ये लडकियां स्कूल कालेज में एनरोल तो रहती हैं, ल