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Showing posts from October, 2017

ईरानी औरतों की कहानियां

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मेरे बालिग होने में थोड़ा वक्त है  ईरानी फिल्मकार मर्जियेह मेश्किनी ने एक दूसरे बहुत मशहूर फिल्मकार मोहसेन मखलमबाफ की स्क्रिप्ट के सहारे तीन लघु कथा फिल्मों के जरिये ईरानी समाज में औरतों की दुनिया को बहुत संजीदगी से समझने की कोशिश की है. इस कथा श्रृंखला का नाम है द डे व्हेन आइ बीकेम अ वुमन यानि वह दिन जब मैं औरत बनी . इस श्रृंखला की तीन फिल्में हैं - हवा, आहू और हूरा. तीनों क्रमशः बचपन, युवावस्था और बुढ़ापे के काल को अपनी कहानी में समेटने की कोशिश करती हैं. हम सबसे पहले हवा की कहानी से इस समाज को जानने की कोशिश करते हैं. यह फिल्म नौ साल की उम्र पर कुछ ही घंटों में पहुंचने वाली मासूम बच्ची हवा और उसके अनाथ दोस्त हसन की कहानी है. हवा की हसन के साथ खूब जमती है और फिल्म की शुरुआत ही उसके इस असरार से होती है कि उसे हसन के साथ खेलने जाना है. इस असरार में थोड़ी दूरी पर खड़ा हसन भी है. हवा की दोस्ती की मस्ती में कुछ देर के लिए व्यतिक्रम आता है जब उसकी दादी उसके नौ साल के होने पर आजादी से खेलने पर रोक लगा देती है और हवा से कहती है कि अब उसे औरतों की तरह पेश आना होगा. मासूम हवा के लिए

महिला संबंधी कानूनों को जानें

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कानून और अदालतें अक्सरहां स्वयं में बेहद महिला विरोधी हैं. पर बहुतेरे मौकों पर महिला आन्दोलन ने कानूनों में प्रगतिशील बदलाव करा पाने में सफलता हासिल की है और कानूनों पर दबाव बनाया कि वे महिला अधिकारों को प्रतिबिंबित करें. आइये खासतौर पर महिला संबंधी कानूनों के कुछ अधिक महत्वपूर्ण आयामों को जानें.  मथुरा मामला : मथुरा महाराष्ट्र की एक किशोर आदिवासी लड़की थी. वो एक लड़के से प्यार करती थी इसलिए उसके घरवालों ने लड़के के खिलाफ अपहरण का केस दाखिल कर दिया था. इसी मामले के सिलसिले में वो थाने के अन्दर थी जबकि उसका परिवार बाहर उसका इंतजार कर रहा था. दो पुलिसवालों ने थाने के भीतर उसका बलात्कार किया. पुलिसवालों को निचली अदालत ने बरी कर दिया. पर बॉम्बे उच्च न्यायालय ने इस रिहाई को पलट दिया और पुलिसवालों को सजा सुनाई पर 1979 में सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस जसवंत सिंह, कैलाशम और कौशल की बेंच ने इस मामले में (तुकाराम बनाम महाराष्ट्र सरकार) बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले को यह कहते हुए पलट दिया कि मथुरा ने कोई विरोध नहीं किया था - उसके शरीर पर किसी किस्म के चोट के निशान नहीं दिख रहे थे - इससे उन्होंने म

अदालतें संविधान के मूल्यों की रक्षा करें

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क्या आप भारतीय महिला हैं ? क्या आपने अपनी मर्जी से जीवन का कोई बड़ा निर्णय लिया है जिससे आपके माता-पिता असहमत हैं ? सावधान रहिए - हो सकता है कि हमारे देश की कोई अदालत आपको अपने पिता की हिरासत में दे दे और आपको पिता के घर पर कैद कर दे. ऐसा करना घोर असंवैधानिक है फिर भी भारत की कुछ माननीय अदालतें ऐसा कर रही हैं.     source: newslaundry केरल की 24 साल की महिला हदिया के साथ कुछ ऐसा ही हो रहा है. हदिया का नाम अखिला हुआ करता था. कॉलेज में उसकी दोस्ती एक मुस्लिम सहपाठी जसीना से हुई. जसीना और उसके परिवार से अखिला की नजदीकी बढ़ी और अखिला ने इस्लाम धर्म अपना लिया और अपना नाम बदल कर हदिया रख लिया। हदिया के पिता ने अदालत में दो-दो बार दलीलें दीं कि उनकी बेटी का इस्लाम में जबरन धर्म परिवर्तन हुआ है. पर केरल के उच्च न्यायालय ने दोनों बार दलीलों को यह कहकर खारिज कर दिया कि हदिया बालिग है और दिमागी रूप से बिल्कुल ठीक है , और अपने निर्णय खुद ले सकती है. हदिया के पिता ने जब तीसरी बार दलील दी तो इस बार हाईकोर्ट में एक अलग बेंच था और इस बार माननीय जजों ने हदिया के पिता का साथ देते हुए हदिया से कह