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Showing posts from January, 2018

योजना कर्मियों की देशव्यापी हड़ताल

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दस केंद्रीय ट्रेड यूनियनों – ऐक्टू, इंटक, ऐटक, एचएमएस, ‘सीटू’, एआइयूटीयूसी, टीयूसीसी, ‘सेवा’, एलपीएफ और यूटीयूसी ने ‘आशा’, मध्याहन भोजन कर्मियों और आंगनबाड़ी सेविका-सहायिकाओं समेत तमाम योजना कर्मचारियों की हड़ताल का आह्नान किया था. 17 जनवरी 2018 को देश भर के जिला मुख्यालयों में करीब साठ लाख योजना कर्मी रैलियों, प्रदर्शनों और धरनों की शक्ल में सड़कों पर उतर आए थे और उन्होंने जिला अधिकारियों के मार्फत केंद्रीय वित्त मंत्री को ज्ञापन भेजा. 9-11 नवंबर 2017 को आयोजित श्रमिक ‘महापड़ाव’ के निर्णयानुसार केंद्रीय ट्रेड यूनियनों ने निम्नलिखित मांगों पर जोर देने के लिए योजना कर्मियों की हड़ताल का आह्नान किया था: 1. 45वें आइएलसी की अनुशंसाओं को लागू करो – कर्मचारियों की मान्यता, 18 हजार रुपये की मासिक न्यूनतम मजदूरी और तमाम योजना कर्मियों के लिए न्यूनतम 3000 रुपये माहवारी पेंशन समेत सामाजिक सुरक्षा की गारंटी करो. इनके लिए ईपीएपफ और ईएसआई की सुविधा दो. 2. आइसीडीएस, एमडीएमएस, एनएचएम, एसएसए, एनसीएलपी आदि केंद्र प्रायोजित योजनाओं के लिए केंद्रीय बजट (2018-2019) में पर्याप्त वित्तीय आवंटन, जिससे क

फिल्म पद्मावती पर सेंसर किये जाने की स्त्रीवादी मांग

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[ फिल्म पद्मावती के खिलाफ एक ओर तो समाज के भीतर परंपरावादी ताकतों और सत्ता तन्त्र के गठजोड़ के साथ उग्र प्रदर्शन, इतिहास और फिक्शन के खांचे में बहस के विषय हैं लेकिन क्या दोनों ही पक्ष-फिल्मकार और प्रदर्शनकारी सती कानून 1987 के दायरे में सजा के हकदार नहीं हैं. एक ओर जौहर/सती का महिमामंडन करता फिल्मांकन और दूसरी ओर ‘जो रोज बदलते शौहर वे क्या जानें जौहर’ जैसे नारों के साथ प्रदर्शन के जरिये जौहर/सती का महिमामंडन करते प्रदर्शन. ] इतिहास अपनी जगह, परम्पराएं अपनी जगह और राजपूती   आन-बान अपनी जगह लेकिन 1987 के सती एक्ट के बाद, यानी रूप कंवर सती काण्ड के बाद देश भर में महिलाओं के आक्रोश के बाद बने कानून के आलोक में फिल्म बनने और उसके प्रदर्शन को समझना चाहिए और फिल्म के विरोध के प्रदर्शनों को भी. भारत में सती प्रथा पर रोक तो लार्ड विलियम बेंटिक और राजाराम मोहन राय के जमाने में ही लग गयी थी. लेकिन 1987 के ‘सती प्रिवेंशन एक्ट’ ने यह सुनिश्चित किया कि सती की पूजा, उसके पक्ष में माहौल बनाना, प्रचार करना, सती करना और उसका महिमामंडन करना भी कानूनन अपराध है. इस तरह पद्मावती पर फिल्म बनाना,

स्त्री अध्ययन केंद्रों पर हथौड़ा क्यों

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देश भर में चल रहे 163 स्त्री अध्ययन केंद्रों के अस्तित्व पर मौजूदा सरकार के शासन काल में संकट के बादल मंडरा रहे हैं. 12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) के समय यूजीसी के द्वारा बहुत से महिला अध्ययन केंद्र खोले गए थे. परंतु पिछले वर्षों में योजना आयोग के भंग होने और 12वीं पंचवर्षीय योजना के समाप्त होने के साथ ही इन केंद्रों के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लग गया. यही स्थिति विश्वविद्यालयों में चल रहे सामाजिक बहिष्करण एवं समावेशी नीति अध्ययन केंद्रों की भी है. यानि हाशिये के बड़े समूहों - महिलाओं और दलितों-पिछड़ों की मूल समस्याओं और उसके निवारण के लिए बने अध्ययन केंद्रों को पृष्ठभूमि में डालने की कोशिश चल रही है. Source: indianculturalforum.in 29 मार्च 2017 को यूजीसी की अधिसूचना के अनुसार इन महिला विमर्श केंद्रों को आगामी एक वर्ष के लिए वित्तीय निधि (फंड) का विस्तार किया जाएगा. इस नोटिस ने इन केंद्रों में कार्यरत शिक्षक, शोधार्थी, छात्रा-छात्राओं और कर्मचारियों के बीच अनिश्चितता एवं भय का माहौल उत्पन्न किया कि आगे क्या होगा ?  आइएडब्ल्यूएस (इंडियन एसोसिएशन आॅफ वीमेंस स्टडीज) ने तुर