सरोगेसी: महिला शोषण का कुचक्र


लिंगाधारित भेदभावपूर्ण सामाजिक तंत्र में प्रजनन सम्बन्धी तकनीक का दुरुपयोग न केवल बच्ची को कोख में ही मार डालने के लिए किया जा रहा है, अपितु उसी कोख को किराये पर देकर मोटी कमाई करने का जरिया भी बना दिया गया है. इसे सरोगेसी के नाम से जाना जाता है. सरोगेसी अर्थात् किराये की कोख. प्रजनन संबंधी इस प्रक्रिया में बच्चा चाहनेवाले असमर्थ दंपती अथवा एकल स्त्री व पुरुष द्वारा अपने बच्चे का जन्म एक समझौते के तहत किसी अन्य महिला से करवाया जाता है. जिसके बदले में उसे पैसा दिया जाता है. यानी जैविकीय पेरेंट्स और अजैविकीय मां के बीच समझौते के तहत बच्चे का जन्म .


अगर कोई महिला अपने स्वास्थ्य संबंधी तमाम तरह की जोखिम उठाकर भी सरोगेट मां बनने जैसी कष्टप्रद व पीड़ादायक स्थिति को झेलते हुए चन्द पैसों के लिए किसी दूसरे के बच्चे को पैदा करने के लिए राजी हो जाती है तो उस महिला की मजबूरी की पराकाष्ठा को समझा जा सकता है. भारत में सरोगेसी उद्योग के फलने-फूलने का कारण गरीब महिलाओं की आसानी से उपलब्धता है. इससे हम महिला के दासत्व का भी अंदाज लगा सकते हैं. महिला की दमित स्थिति जो उसे सरोगेसी के धंधे में धकेलती है. यह एक प्रकार का न केवल सामाजिक कलंक है, अपितु महिला सशक्तीकरण के सरकारी दावों के खोखलेपन को भी उजागर करती है. वस्तुतः जिस सामन्ती-पूंजीवादी तन्त्र में हम रहते हैं, उसमें हर चीज कमोडिटी है. महिला की कोख भी एक कमोडिटी है बच्चा पैदा करनेवाली एक उपयोगी मशीन इसके चलते तस्करी में लगे अपराधी वंचित-लाचार महिलाओं की कोख में भी बाजार तलाश रहे हैं और उनका यौन-शोषण कर रहे हैं. 

इस सम्बन्ध में हाल ही में सरकार ने सरोगेसी के बढ़ते व्यावसायीकरण पर पाबंदी लगाने की मनसा जाहिर करते हुए कैबिनेट में सरोगेसी बिल को मंजूरी दी है. किन्तु विधेयक की मूल भावना इसे रोकने की कम, विद्यमान पितृसत्तात्मक पारिवारिक ढांचे को बचाने की अधिक है. अपनी सत्ता-संरचना में यह विधयेक प्रतिक्रियावादी व महिला विरोधी है. बिल की भावना सापफ दिखाती है कि सरकार की नजर में सरोगेसी अपने आप में गलत व अनैतिक नहीं है. इसलिए बिल के पूरे प्रावधान इसके दुरुपयोग को रोकने पर केन्द्रित हैं. विधेयक में सरकार ने महिलाओं की उन आर्थिक मजबूरियों को खत्म करने का कोई कदम उठाने की इच्छाशक्ति भी नहीं दिखाई है जिसके चलते महिलाएं अपनी कोख बेचने को बाध्य हो रही हैं. व्यवस्था के हाथों ऐसी प्रताड़ित महिलाओं को रोजगार मुहैया कराने की जिम्मेदारी लेने की दृष्टि दूर तक नहीं है. विधेयक में प्राथमिकता विद्यमान वैवाहिक प्रणाली को मजबूती से बनाये रखना है. इस सामाजिक अपराध में मानवीय संवेदनाओं से जुड़े अनेक ऐसे भावनात्मक पहलुओं की पूरी तरह से अनदेखी की गई है जो अदृश्य हैं किन्तु जीवन को गहन रूप से प्रभावित करते हैं. हालांकि विधेयक उपरी तौर पर काफी न्यायसंगत लगता है. मसलन, इसके मुख्य प्रावधानों में न केवल अक्षम दंपती सरोगेसी करवा सकेंगे, बल्कि केवल भारतीय दंपतियों के लिए ही सरोगेसी की अनुमति है. इस बिल में अविवाहित महिला पुरुष, सिंगल पैरेंट, समलैंगिक माता-पिता, लिव इन रिलेशनशिप्स में रहने वालों या शौकिया सरोगेसी की इजाजत नहीं दी गई है. इसके साथ ही कई और भी प्रावधान हैं जिनके तहत कौन महिला कितनी बार सरोगेट बन सकती है, कौन क्लीनिक सरोगेसी करवा सकेगी, बच्चा चाहने वाले दंपती की उम्र क्या होगी, सरोगेसी कौन करवा सकेंगे इत्यादि. मतलब सापफ है. यदि इसे मर्यादित ढंग से चलाया जाये तो सरकार की नजर में अनुचित नहीं है और मानव भ्रूण के इस कारोबार पर जिस तरह की बहस चलाई जा रही है, वह सरोगेसी पर न होकर केवल व्यवसायिक सरोगेसी की रोक पर है. यह औपचारिक प्रयास एक तरह से रोग को मिटाने की बजाय उसके लक्षण से लड़ने जैसे हैं. इसमें मूल प्रश्न व समस्याओं को या तो बहस से बाहर कर दिया जाता है या फिर बहस को भटका कर उन्हें पृष्ठभूमि में धकेल दिया जाता है. मूल प्रश्न है सरोगेसी पर पूरी तरह से पाबंदी क्यों नहीं लगनी चाहिए? यदि संतान सुख लेना ही इसका उद्देश्य होता तो हमारा सामाजिक तंत्र इसके दूसरे विकल्प का अवसर देता. बच्चे को गोद लिया जा सकता है अथवा किसी अनाथ बच्चे को अपनाया जा सकता है. किन्तु सरोगेसी से बच्चा करने की प्राथमिकता दिखाती है कि यह महज सन्तान सुख का मुद्दा नहीं है. वस्तुतः यह पितृसत्तात्मक व्यवस्था का पोषक व वाहक दोनों है जिसमें ‘रक्त की शुद्धता’ प्रधान रहती है, जिसके मूल में ‘मैं, मेरा और मेरे बाद कौन’ के उत्तराधिकार का सामाजिक मनोविज्ञान प्रमुख रहता है. इसकी ऐतिहासिक जड़े हैं. ‘निजी सम्पत्ति एवं सत्ता’ आधारित समाजों में ‘एक पत्नी विवाह’ प्रणाली ‘मेरा खून’ ‘मेरा वारिस’ की जरूरत का उत्पाद है. मौजूदा बिल में भी वैवाहिक दंपती से इतर अन्य अविवाहित महिला पुरुष, सिंगल पैरेंट, होमोसेक्सुअल और लिव इन रिलेशनशिप्स में रहने वालों को सरोगेसी से वंचित कर देना भी पितृसत्तात्मक तंत्र को मजबूती प्रदान करना है. विवाह के ये स्वरूप परम्परागत पितृसत्तात्मक मातृत्व एवं वैवाहिक प्रणाली को चुनौती देते हैं. प्रस्ताव है कि विवाहित दंपती के अलावा सरोगेसी जुर्म होगा जिसमें दोषी को 10 साल की जेल और 10 लाख रुपये तक का जुर्माना हो सकता है. बिल की पूरी भावना जैविकीय पितृत्व पर जोर देती है. यह बिल 2008 के ‘सहायक पुनरुत्पादन तकनीकी’ बिल का ही नया रूप है, जिसमें सरोगेट मदर व बच्चे के अधिकारों और सुरक्षा के सवालों की अनदेखी की गई और इस उद्योग में लगे लोगों पर कोई पाबंदी नहीं
लगाई गई थी। यह हास्यास्पद है कि इस बिल में भी इस अमानवीय अपराध् में लिप्त दलालों, कमीशनखोरों, डाक्टरों, क्लीनिक व स्पर्म बैंक चलने वालों के लिए कोई सख्त सजा नहीं है। सरोगेट बनने को मजबूर महिला के कोई अधिकार सुस्पष्ट नहीं हैं। उसकी व उसके परिवार की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है, न ही कोई बीमा का प्रावधन है। गर्भ के दौरान यदि सरोगेट किसी गंभीर बीमारी का शिकार हो जाये, उसकी जान जोखिम में पड़ जाये, उसका गर्भपात हो जाये, डिलीवरी के दौरान उसकी मृत्यु हो जाये जैसे अनेकानेक मुद्दे हैं जिन पर स्पष्ट नीति व कानून की सख्त जरूरत है। राज्य सरोगेट मदर को न्यायोचित समझौता करने में कोई कानूनी सहायता नहीं करता है. यहां तक कि यदि उसे किये गये समझौते के अनुसार पैसा नहीं मिलता है तो उसे अदालत का दरवाजा खटखटाने का हक होगा कि नहीं, इस सम्बन्ध् में कोई स्पष्ट व व्यावहारिक नीति सामने नहीं आयी है। इस व्यवसाय में मोटी रकम वसूलने वाले डाक्टर, दलाल, क्लीनिक मालिक दंपती से लिये जाने वाले पैसे का बड़ा हिस्सा आपस में बांट लेते हैं और सरोगेट को बहुत ही कम पैसा हाथ लगता है, जिस पर लगाम कसने सम्बन्धी सरकार की कोई ठोस कदम उठाने की इच्छा दिखाई नहीं देती है।

यह स्थिति उस समय और भी गंभीर बन जाती है जब कुछ नारीवादी अथवा इस खरीद-फरोख्त से लाभ लेने वाले इस बहस को महिला के सामाजिक उत्पीड़न, श्रम के शोषण, घरेलू कामकाज में हिंसा, वेश्यावृत्ति के कारोबार का हवाला देकर इसकी परोपकारी व्याख्या कर सही ठहराते हैं। तकनीकी विकास का यह दुरुपयोग दिखाता है कि यदि व्यवस्था मानव विरोधी है तो तकनीकी विकास भी हाशिये के जनगण के लिए वरदान नहीं अभिशाप बन कर आता है। सरोगेसी की धारणा अपने आप में न केवल अप्राकृतिक व मानवाधिकार विरोधी है बल्कि महिला व बच्चे के शोषण पर टिकी हुई है। नवजात शिशु अपंग है, किसी लाइलाज रोग का शिकार है, मन चाहा रंग नहीं है, सरोगेसी के दौरान दंपती में तलाक हो गया और बच्चे को लेने के लिए कोई तैयार नहीं है या गर्भावधि के दौरान दंपती पत्नी मां बनने जा रही है, संभावित माता-पिता का मानस बदल गया है इत्यादि स्थितियों में बच्चे की दुर्दशा का अनुमान लगाया जा सकता है। उसके नागरिक अधिकार निर्मम तरीके से कुचल जाते हैं। ऐसे में सरोगेट महिला की कठिनाइयां और बढ़ जाती हैं। 

जब हम इसके नैतिक पहलुओं की बात करते हैं तो नैतिकता की इस बुनियादी शर्त को नजरंदाज कर देते हैं कि नैतिकता के मूल में व्यक्ति की ‘चयन की आजादी और इच्छा-स्वातंत्रय अंतर्निहित रहती है। इस दृष्टि से सरोगेसी किसी भी रूप में नैतिक नहीं है क्योंकि जो भी महिला सरोगेट बनने की सहमति देती है वह गरीब, शोषित व निम्न तबके की महिला है जिसकी मजबूरी व बाध्यता ही ‘सहमति ’ का आवरण ओढ़ कर आती है। संपन्न और अभिशप्त के बीच समझौते में कौन खोता है और कौन पाता है, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। क्या शिशु जन्मने में होने वाली कठिनाइयों को महज पचास हजार - लाख रुपये देकर मोल अदा किया जा सकता है? पूरी प्रकिया में मां व बच्चा कहीं प्राथमिकता में नहीं हैं। सरोगसी में पुरुष को कहीं कुछ भी झेलना अथवा जोखिम नहीं उठाना पड़ता है। सरोगेसी जिस पूंजीवादी व्यवस्था का औरस-पुत्र है वह मनुष्य से पहले मुनाफा, समाज से पहले बाजार, आवश्यकता से पहले लाभ के मूलमंत्र पर घूमती है। जहां व्यक्ति की मान-मर्यादा, पद-प्रतिष्ठा, सब कुछ पैसे से तय होता है, वहां नैतिकता की बात करना एक तरह का मखौल है। पैसा ही नैतिक है, मूल्य है। जिसका आसान शिकार महिला होती है। 

सरोगेसी का एक रुचिकर पहलू यह भी है कि निःसन्तान दंपती में यदि महिला का अण्डाणु अनुर्वर है तो उसे अन्य महिला से लेने में कोई परेशानी नहीं है। यह अन्य महिला स्वयं सरोगेट हो सकती है या दानदाता भी हो सकती है। इस स्थिति में क्योंकि शुक्राणु दंपती पुरुष के ही होते हैं इसलिए कोई आपत्ति नहीं होती है। किन्तु यदि पुरुष के शुक्राणु अनुर्वर हैं तो मामला पेचीदा बन जाता है। अन्य पुरुष के शुक्राणु से पैदा हुआ बच्चा स्वीकार्य नहीं है क्योंकि रक्त की शुद्धता दांव पर है। दंपती पत्नी की यदि सरोगेसी की प्रक्रिया में कोई भागीदारी नहीं है तो
उसका बच्चे के साथ सहज भावात्मक लगाव भी नहीं हो पाता है जिसका नकारात्मक प्रभाव बच्चे के विकास व व्यक्तित्व निर्माण पर पड़ता है। इस वैकल्पिक मातृत्व के व्यवसाय में महिला चाहे दंपती के रूप में हो या सरोगेट
के रूप में, कीमत वही चुकाती है। पुरुष, तंत्र व लाभान्वित होनेवाली जमात किसी भी स्तर पर कुछ नहीं खोती है। महिला अपने स्वास्थ्य से लेकर सम्मान तक सब कुछ खो देने को मजबूर है। सरोगेसी के दौरान वह जिस मनोदशा व भावनाओं से गुजरती है वहां मातृत्व का सुख भी बेचा जा रहा है। सरोगेट जब पुनः अपने पारिवारिक- सामाजिक जीवन में लौटती है तो वह जिस अपमान, हेय दृष्टि व बेइज्जती को झेलने के लिए अभिशप्त है उसकी क्षतिपूर्ति क्या देकर की जा सकती है?

यदि सरकार चाहती तो इस प्रकृति विरोधी शोषणकारी कृत्य पर पूरी तरह से अकुंश लगा सकती थी किन्तु ऐसा तभी होता जब वह महिला को इस दलदल से निकालने की अपनी जबाबदेही समझती। भाजपा सरकार जिन मनुवादी आदर्शों की बुनियाद पर खड़ी है और उसे ईश्वरीय न्याय बताती है उसमें महिला सरोगेट तो बन सकती है किन्तु उसे इंसानी जीवन जीने के सामाजिक अवसर नहीं दे सकती ।

- सुधा चौधरी

Comments

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