आशा का संगठन और आंदोलन: एक अनुभव
आज भी ग्रामीण भारत बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं से दूर है. महिला स्वास्थ्य खासकर एनीमिया ग्रस्तता की स्थिति भयावह तस्वीर पेश कर रही है. कुपोषण, एनीमिया के बीच परंपरागत प्रसव के चलते जच्चा-बच्चा मृत्यु दर काफी चैंकाने वाले हैं. बाल मृत्यु-दर का अनुपात भी काफी है. टीकाकरण के समुचित व्यवस्था नहीं रहने के चलते कई तरह की बीमारियां हैं. पिछले एक दशक से हिंदी पट्टी के गोरखपुर से लेकर मुजफ्फरपुर में सैकड़ों बच्चों की जान एक खास समय में गई है. इसका विस्तार बंगाल तक है. बच्चों को ग्रसित करने वाली ये बीमारियां बार-बार सामने आ रही है. इसके साथ ही ग्रामीण इलाकों में पलायन जनित संक्रमित बीमारियों का जाल विस्तृत हो रहा है. गुजरात, दिल्ली, बंबई आदि जगहों पर फैले डेंगु, चिकेन गुनिया, बर्ड फ्लू आदि के मरीज का विस्तार देश के सुदूर गांवों तक हो रहा है.
क्या है राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन ?
देश के 18 राज्यों जहां जन स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव है और जनता तक हेल्थ केयर सिस्टम पहुंच नहीं पा रहा है - इसमें राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत जन स्वास्थ्य अभियान की शुरुआत की गई है. आम ग्रामीण जन समुदाय तक स्वास्थ्य सुविधाओं को पहुंचाना इसका लक्ष्य है और इसके लिए अपेक्षित स्वास्थ्य अधिसंरचनात्मक ढांचों का विकास करना है. स्वास्थ्य जागरूकता, स्वच्छता और शुद्ध पेयजल को भी इस समेकित अभियान का हिस्सा बनाया गया है. राज्यों को विभिन्न जोन में बांटा गया हालांकि अब इस योजना का विस्तार तकरीबन देश के सभी राज्यों - केंद्रशासित प्रदेशों में हो गया है बिहार सहित अन्य दर्जनभर राज्य इसके प्रथम प्राथमिकता वाले जोन में आते हैं. नार्थ ईस्ट के 6 राज्यों के साथ-साथ बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हिमाचल, जम्मू और कश्मीर हाई फोकस जोन में आता है. हाई फोकस जोन का मतलब स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच को गांव तक पहुंचाना और इसके लिए 1000 की जनसंख्या पर आशा की बहाली करना. नाॅन फोकस जोन में पूरा देश आता है. वहां सरकार प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और उप-केंद्र की जरूरतों के मुताबिक आशाओं की बहाली करेगी. बिहार में जनसंख्या वृद्धि दर राष्ट्रीय औसत 17.64 की तुलना में 25.07 है. बाल मृत्यु-दर और जननी मृत्यु-दर भी हाल के वर्षों में प्रगति के बावजूद राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है. महिला साक्षरता के मामले में भी बिहार राष्ट्रीय औसत से काफी पीछे है आशाओं का चयन मूलतः केंद्र प्रायोजित एनआरएचएम योजना के तहत हुआ है और सरकार ने चालाकी से पंचायत को नियोक्ता बना दिया है. पूरे देश में लगभग 9 लाख आशा कार्यरत हैं जिन्हें न्यूनतम मजदूरी तक नहीं दी जाती है. राज्य की स्वास्थ्य सेवा की मुख्य कड़ी भी आशाएं हैं लेकिन केंद्र और राज्य सरकारें निर्लज्जता के साथ महिला श्रम और दक्षता का दोहन कर रहे हैं. यह न्याय और अधिकार का गला घोंटना है.
बड़ी जनसंख्या वाले प्रदेश बिहार में एनआरएचएम के तहत प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों-उपकेंद्रों का अपेक्षित विस्तार हुआ लेकिन स्वास्थ्य कर्मचारियों के 8822 पद रिक्त हैं. महिला चिकित्सकों और शिशु चिकित्सकों की भारी कमी है. (स्रोत एनआरएचएम, बिहार) के अनुसार बिहार में आशाओं की संख्या 86,000 से ज्यादा है. 8वीं से 10वीं पास ये महिलाएं कमजोर आर्थिक-सामाजिक पृष्ठभूमि से आती है. ये महिलाएं सरकार की जनस्वास्थ्य अभियान की सेतु हैं. ग्राम समुदाय और स्वास्थ्य सुविधाओं-अभियानों से जोड़ने का काम ये महिलाएं करती हैं. स्वाभाविक है कि अस्पतालों में प्रसव कराना, गर्भवती महिलाओं के साथ भौतिक संवाद बनाए रखना, उनके लिए आयी दवाओं को आंगनबाड़ी केंद्रों से मिलकर अथवा स्वतंत्र रूप से वितरित करना, इन्द्रधनुषी टीका अभियान खासकर पल्स पोलियो अभियान को सफल बनाना, परिवार नियोजन के पक्ष में प्रचार-प्रसार करना, स्वच्छता अभियान के लिए लोगों को प्रेरित करना. शौचालय, पेयजल तथा स्वास्थ्य के प्रति समाज को जागरूक बनाना भी इनका काम है.
काम की प्रकृति बतलाता है कि आशाओं का काम 24 घंटे सातो दिन का है. रात के अँधेरे में जोखिम उठाकर उसे प्रसव वाली महिलाओं को प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों तक पहुंचाना पड़ता है. अस्पताल के डाक्टर-नर्सो को जगाना होता है. बिजली नहीं रहने पर प्रकाश का प्रबंध् करना होता है. समस्याएं जटिल होने पर उन्हें नजदीक के अस्पताल तक जाना होता है. प्रसव होने के बाद ही उन्हें फुर्सत मिलती है. सामंती समाज उन्हें ‘चमईन’ की दृष्टि से देखता है और पूंजीवादी व्यवस्था इन्हें मजबूरी में अपना श्रम बेचने के लिए तत्पर श्रमिक मानता है. पुराना सामंती समाज अधीनस्थ मजदूर परिवार की महिलाओं को विभिन्न तरह के घरेलू श्रम मसलन पानी भरने, कपड़ा धेने, घर की साफ-सफाई करने, धन कुटने, गेहूं पीसने आदि में लगाता था, और उसकी कोई तय मजदूरी नहीं होती थी. मलिकाईन हाथ उठाकर जो दे देती थी वहीं उनका पारिश्रमिक होता था. काम के एवज में खाना मिल जाता था और कभी-कभार कुछ कपड़े-लत्ते. यही हाल आशाओं का है. सरकार ने चालाकी से इसका नाम स्वास्थ्य कार्यकर्ता रखा दिया है जो स्वयंसेवक के बतौर अपना सेवा देती है. राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में लगे अन्य सबों को मासिक वेतन मिलता है. लेकिन इन्हें 200-400 रुपये के प्रसव आधारित टीका इंसेंटिव पर काम करने पर मजबूर किया जाता है. यह महिलाओं के श्रम के शोषण का अनोखा उदाहरण है और यह काम सरकार कर रही है जिसकी जिम्मेवारी न्यूनतम मजदूरी कानून लागू करने की है.
काम के 24 घंटे और सातों दिन की प्रकृति के बावजूद आशा को कोई मासिक पारिश्रमिक नहीं मिलता. उन्हें कार्यक्रम आधारित प्रोत्साहन राशि मिलती है. प्रति संस्थागत प्रसव 600 रुपये का प्रावधन है उसमें भी उसे महज तीन सौ रुपये मिलते हैं. शेष राशि का बंदरबांट हो जाता है. 5-13 वर्षों के बालक-बालिकाओं के बीच इन्द्रधनुषी टीकाकरण के शत-प्रतिशत होने पर 200 की राशि मिलती है. 50 प्रतिशत रह जाने पर कोई भी राशि नहीं मिलती. पल्स पोलियो अभियान में दिन भर लगने के बाद उन्हें केवल 75 रुपये मिलते हैं. सरकारी कर्मी का दर्जा नहीं मिलने के चलते डाॅक्टर से लेकर कर्मचारी तक उनके साथ नौकरानी जैसा व्यवहार करते हैं. छेड़खानी की कई घटनाएं अक्सर सामने आती रहती है. ये महिलाएं जब घर से बाहर निकलती हैं। तो एक तरफ पिछड़े सामंती समाज के ताने उन्हें सुनने पड़ते हैं. घर गृहस्थी के कठिन कामों के साथ बाहर के काम का सामंजस्य बिठाना पड़ता है. वहीं दूसरी तरफ कार्यस्थलों पर न तो उचित पारिश्रमिक मिलता है और ना ही सम्मान. गंवई पृष्ठभूमि की समाज साक्षर इन आशाओं ने दक्षता हासिल करने की मिसाल कायम की है. ग्रामीण स्वास्थ्य की समस्याओं की इनकी समझ काबिले तारीफ है.
गांव-गांव में ये आशा दीदी के नाम से काफी लोकप्रिय हैं. महिलाएं इन्हें अपनी समस्याएं खुलकर बताती है और राय सुझाव लेती है. यों कहा जाए तो ग्रामीण स्वास्थ्य की रीढ़ के बतौर आशा सामने आ रही है और उनकी बढ़ती भूमिका और योगदान को यूनीसेफ (यूनीसेपफ-डब्ल्यू एच.ओ) सहित सभी एजेंसियां कबूल कर रही हैं (देखें एनआरएचएम वेबसाइट) लेकिन एनआरएचएम उनके वेतन और मानदेय की बात नहीं करता. आज भी वे एनआरएचएम की स्वयंसेविका हैं जिन्हें करार के आधार पर पंचायतों ने बहाल किया है. लेकिन विचित्र स्थिति यह है कि वे नियोक्ता के प्रति जवाबदेह न होकर प्रभारी, स्वास्थ्य केंद्र के प्रति जवाबदेह हैं. हर मामले में उन्हें प्रभारी की धमकी झेलनी पड़ती है. किसी अस्पताल और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में महिला शिकायत कोषांग तक गठित नहीं है.
बिहार में आशाओं को संगठित करने की शुरुआत सबसे पहले स्वास्थ्य विभाग में कार्यरत एनजीओ ने की. कुछेक जगहों पर स्वास्थ्य विभाग से जुड़े कुछ एक कर्मचारियों ने इस दिशा में पहल की. इसके बाद इनकी संख्या और ग्रामीण समाज से इनके जुड़ाव को देखते हुए विभिन्न ट्रेड यूनियन केंद्रों और कर्मचारी संगठनों की पहलकदमी सामने आईलेकिन ऐसा देखा गया कि ग्रासरूट स्तर पर इनके संगठन, शिक्षण-प्रशिक्षण और दावेदारी को लेकर सचेतन कोशिश की निरंतरता का अभाव है. बिहार राज्य अराजपत्रित कर्मचारी महासंघ और ऐक्टू के साथ मिलकर अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला एसोसिएशन की ओर से इस दिशा में कामकाज की शुरुआत 2007 में की गई. संगठन ने ऊपर से पहलकदमी पर जोर देने के साथ नीचे की गोलबंदी और ट्रेनिंग के कार्य को बढ़ाया. सबसे पहले राज्य स्तरीय सम्मेलन आहूत करके राज्य ढांचा खड़ा किया ताकि विभिन्न संगठनों के मुकाबले हमारा राज्य स्तरीय संगठन और पहलकदमी आशाओं के बीच स्थापित हो.
इसके बाद बिहार के दर्जनों प्रखंडों में प्रखंड स्तरीय कार्यशालाएं आयोजित की गई. जिला कन्वेंशन आयोजित हुए. हमने पहले उनकी पहचान, मान-सम्मान और गरिमापूर्ण व्यवहार को मुद्दा बनाया. सभी आशाओं को पहचान पत्र मिले ताकि वह किसी अस्पताल में स-सम्मान मरीजों का दाखिला करा सके नीचे से यह आवाज पूरे बिहार में गूंजने लगी. उन्हें परिचय-पत्र प्रदान करना पड़ा. यह पहली जीत थी. प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों - उप केंद्रों पर शौचालय के इस्तेमाल करने की मनाही आशाओं को थी. इसको लेकर समूह में आवाज उठाई गई. इस दिशा में प्रगति हुई. क्योंकि शौचालय की चाभी नर्सों या कर्मचारियों के पास होती है. कपड़े बदलने-काम नहीं रहने की स्थिति में आराम करने को लेकर सभी स्वास्थ्य केंद्रों पर आशा विश्राम गृह की मांग उठाई गई. इसका असर हुआ है, और यह योजना पाईप लाइन में है.
हमने मासिक मानदेय/वेतन के सवाल को महिला श्रम और दक्षता के स्तर पर उठाया, इसको लेकर आशाओं को प्रशिक्षित किया उनके भीतर चेतना जगी कि हमारे श्रम और दक्षता का दोहन हो रहा है. काम के चरित्र और काम के घंटे के अनुपात में उन्हें पारिश्रमिक नहीं दी जा रही है. इस प्रक्रिया में आशाओं के भीतर से सभी जिलों व प्रखंडों में एक नेतृत्वकारी टीम उभर कर सामने आई. अलग-थलग और व्यक्तिगत मामले को उठाने के बदले सामूहिक शिकायतें दर्ज कराई जाएं - इस दिशा के तहत आशाओं को गोलबंद करने की दिशा बनाई गई. इस प्रक्रिया में मालिक/नौकरानी जैसा संबंध टूटा और आशाएं खुलकर अपना पक्ष रखने लगी. नीचे से लेकर ऊपर तक की सभा और सम्मेलनों के जरिए संगठन की चेतना और ताकत का एहसास इनके भीतर आया. इनकी जागृति और शिक्षण-प्रशिक्षण को लेकर समय-समय पर कई पैंपलेट निकाले गए और स्थानीय सम्मेलनों-सांगठनिक बैठकों की निरंतरता बनाई गई.
इस तैयारी के आधार पर हमने हड़ताल की योजना बनाई. यह बिहार की आशाओं का उनके मुद्दे पर पहली स्वतंत्रा राज्यव्यापी हड़ताल थी. पल्स पोलियो के अभियान के समय हड़ताल की अवधि मुकर्रर की गई. आशाओं ने नारा दिया कि हमने पल्स पोलियो अभियान को बिहार में सफल बनाया है. टीकाकरण योजना में बिहार को अव्वल होने का गौरव दिया है और बाल मृत्युदर-माता मृत्युदर में गुणात्मक गिरावटें दर्ज कराई हैं. इसलिए हमारी मांगें अगर सरकार नहीं मानती है तो बिहार में हम पल्स पोलियो को नहीं चलने देंगे. बिहार राज्य आशा कार्यकर्ता संघ की ओर से 11-सूत्री मांगों का मांग-पत्र सरकार सहित स्वास्थ्य विभाग को सौंपा गया. हड़ताल की तैयारी को लेकर राज्य से लेकर जिला व प्रखंड स्तरों पर आशाओं की बैठकें बुलाई गईं. मांग और हड़ताल से सम्बंधित पर्चे बड़ी संख्या में पूरे राज्य में वितरित किए गए. आशा संगठन के स्वतंत्र पहल पर यह पहली हड़ताल थी. रोजाना काम और कोई पगार नहीं यह एक बड़ा अंतरविरोध काम कर रहा था. इसने हड़ताल को व्यापक बना दिया और पूरे राज्य की आशाएं, सभी तरह के संगठनों-संघों से संबंद्ध इसमें आ जुड़ीं. आशाओं ने अपनी एकता, गोलबंदी और जुझारूपन का नया इतिहास रचा. 20 जुलाई की रात से ही आशाएं खाना-कपड़ा लेकर स्वास्थ्य केंद्रों-सिविल सर्जन कार्यालयों पर पहुंचना शुरू कर दीं. आशाओं की इस गोलबंदी और आक्रमकता के सामने स्वास्थ्य महकमा परेशान हो उठा क्योंकि पल्स पोलियो अभियान समेत संपूर्ण ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाएं ठप हो गई थीं. हड़ताल में बढ़ती भागीदारी को कमजोर करने के लिए प्रशासन ने आशाओं को डराना धमकाना शुरू किया. थानों में मुकदमें दर्ज करना शुरू कर दिया. चयन मुक्त करने के आदेश निकाले जाने लगे. लेकिन दमन की इन कार्रवाईयों के खिलाफ व्यापक प्रतिक्रिया हुई और हड़ताल के पक्ष में गोलबंदी तेज हो गई. ठप पोलियो अभियान और ठप होते ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा से परेशान कई सिविल सर्जनों ने सरकार के पास त्राहिमाम संदेश भेजना शुरू कर दिया. एक महीना पहले दिए गए मांग पत्रों पर सरकार-प्रशासन वार्ता के लिए तैयार नहीं थे और कह रहे थे कि इसमें राज्य सरकार कुछ नहीं कर सकती क्योंकि यह केंद्र सरकार द्वारा संचालित अभियान है. 24 जुलाई को प्रधान सचिव, स्वास्थ्य विभाग ने वार्ता के लिए बिहार राज्य आशा कार्यकर्ता संघ को बुलाया. बिहार राज्य आशा कार्यकर्ता संघ, बिहार राज्य अराजपत्रित कर्मचारी महासंघ (गोप) और ऐक्टू के साथ स्वास्थ्य विभाग के आला अध्किारियों की वार्ता हुई जिसमें सरकार ने मासिक मानदेय देने पर सहमति जताई और इसको तय करने को लेकर एक सात सदस्यीय कमेटी का गठन किया. सभी आशाओं को साइकिल देने, स्वास्थ्य केंद्रों पर आशा विश्राम गृह बकाये प्रोत्साहन राशि भुगतान, कार्य आधारित प्रोत्साहन राशि जो पिछले दस वर्षों से एक जगह स्थिर थी उसमें बढ़ोत्तरी करने आदि बिंदुओं पर सहमति बनी. यौन उत्पीड़न की शिकायतों पर विशेष संस्थागत ढांचा बनाने, इपीएपफ आदि पर चर्चा हुई. हड़ताल के दरम्यान उठाए गए अनुशासनिक कदमों को वापस लेने का निर्णय हुआ. हड़ताल की सफलता और जीत ने आशाओं में आत्मविश्वास पैदा किया और संगठित होने की भावना मजबूत हुई. हड़ताल का फायदा यह हुआ कि आशा को मासिक मानदेय को लेकर एक कमेटी बनी जो अन्य राज्यों के अध्ययन के उपरांत सिपफारिशे करेंगी और राज्य पर पड़ने वाले सकल खर्च का लेखा-जोखा प्रस्तुत करेगी और साथ ही एनआरएचएम से भी इसके बरक्स पक्ष रखेगी. इसके साथ ही राज्य में नियोजन तदर्थ, ठेका आदि पर कार्यरत कर्मियों के सेवा नियमन को लेकर बनी कमेटी में भी विचारार्थ आशा को रखा गया.
वार्ता के बावजूद हड़ताल के क्रम में बर्खास्त कर दिए गए आशाओं को पुनः काम पर लेने से आनाकानी किया जाने लगा. खासकर दरभंगा, गोपालगंज और रोहतास में. ऊपर से दबाव बढ़ाने पर गोपालगंज और रोहतास में तो उन्हें काम पर ले लिया गया लेकिन दरभंगा के 63 आशाओं के निलंबन का मामला लटका रहा. वहां सीपीएम से जुड़ा जन स्वास्थ्य कर्मचारी संघ अवरोधक का काम कर रहा था. धारावाहिक स्थानीय संघर्ष और ऊपरी दबाव के चलते कई महीनों के बाद उन्हें काम पर लिया गया. बिहार के बाहर उत्तराखंड, असम बंगाल, झारखंड आदि राज्यों में कई उल्लेखनीय पहलकदमियां ली गई हैं. फलस्वरूप इन राज्यों में हमारे संगठन की खास पहचान बनी है. हाल के दिनों में विधान सभा चुनाव से पहले उत्तराखंड में आशाओं का जबर्दस्त आंदोलन हुआ और सरकार को 2 हजार रुपये मासिक मानदेय की घोषणा करनी पड़ी. हालांकि अभी तक ये घोषणा लागू नहीं हुई है और नवगठित भाजपा सरकार चुप्पी बनाई हुई है. इसी दौर में गुजरात में भी संगठन का विस्तार हुआ है, सम्मेलन के माध्मम से कमेटी गठित हुई है. पिछले दिनों झारखंड में भी सहिया (आशा की सहिया) की राज्यव्यापी गोलबंदी सामने आई है. आंदोलन का ही नतीजा है कि वहां सभी सहिया को साइकिल दी गई है. इस
दरम्यान, असम और बंगाल में भी कई कार्यक्रम हुए हैं. उत्तर प्रदेश में शुरुआती दौर में कोशिशें हुईं लेकिन अभी तक कोई अपेक्षित सपफलताएं नहीं मिली हैं. दक्षिण के राज्यों में हमारी पहल काफी कमजोर है. राष्ट्रीय स्तर पर
हमने संयोजनकारी टीम बनाई है लेकिन राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर निरंतरता के साथ बैठकें नहीं हो पा रही हैं और न ही अभी तक मुकम्मल टीम बन पाई है. इस दरम्यान राष्ट्रीय स्तर पर कुछेक पहलकदमियां ली गई है. दिल्ली में संसद भवन के सामने धरना दिया गया था और इसी साल केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव से शिष्टमंडल ने मिलकर मांग-पत्रा सौंपा है.
हमारा अनुभव बताता है कि नियमित स्थानीय संगठन और आंदोलन के साथ अगर हम धारावाहिक ऊपरी पहलकदमी लेते हैं हमारा संगठन आशाओं के एकल केंद्र के बतौर खड़ा होगा. इस मोर्चे पर हमें विभिन्न कर्मचारी संगठनों-आशाओं के रंग-बिरंगे संगठनों से जूझना पड़ रहा है लेकिन विशुद्धतः आशाओं के बीच और उनके सवालों को लेकर काम करने वाले संगठन कम है.
देश के तकरीबन सभी राज्यों और खासकर पिछड़े गरीब राज्यों में एनआरएचएम के विशाल नेटवर्क में तकरीबन 8.59.331 आशा कार्यरत हैं (दिसंबर 2014 के आंकड़ों के अनुसार). महिला वर्क फोर्स की इतनी बड़ी तादाद जो न्यूनतम मजदूरी से भी वंचित हैं का सवाल बड़ा राजनीतिक सवाल है. बड़ी गोलबंदी और बड़े आंदोलन की पूरी संभावना है. हमें इसकी तैयारी में और भी शिद्दत से लगने की जरूरत है.
- शशि यादव
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