सावित्रीबाई फुले पुस्तकालय इब्तिदा सफर की जो कारवां बने
ऐसी एक पढ़ने-लिखने की जगह बनाने का सपना. हममें से, जो मिलकर इसे शुरू कर सके. अलग अलग लोगों ने अलग समय, अलग स्थान पर देखा था. सिलसिलेवार तरीके से बयां करने की कोशिश की जाए तो विचार रूप में इस सपने को साझा करना और इस पर अमल करने की योजना बनाने की शुरुआत प्रणय जी (जन संस्कृति मंच) के साथ बातचीत से हुई. ऐसे पुस्तकालयों की स्थापना तब और भी जरूरी महसूस होने लगी जब हमारे समाज से पढ़ने की संस्कृति तेजी से या तो विलुप्त होने लगी या भ्रष्ट होने लगी. इस बात को तीन तरह से समझा जा सकता है.
एक, ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में पुस्तकालयों का नितांत अभाव है. ऐसे इलाकों में मूलतः दो तरह का तबका रहता है. एक, जो बेहद गरीब है और पढ़ने के लिए पैसे खर्च करने की स्थिति में नहीं है, रोजी-रोटी का सवाल ही उनके लिए इतना बड़ा है कि पढ़ने के लिए पैसे खर्च कर पाना उनके लिए संभव नहीं. खासकर लड़कियों के लिए, जिनके लिए स्कूली पढ़ाई भी अधिक दिनों तक जारी नहीं रह पाती. दूसरे, वह तबका है जो अपनी लड़कियों की स्कूली पढ़ाई का कम से कम स्वांग तो रचा पाते हैं. स्वांग इसलिए कि ये लडकियां स्कूल कालेज में एनरोल तो रहती हैं, लेकिन वहां कभी पढ़ने नहीं जातीं. हमारे समाज का सामंती ढांचा और नैतिक रूढि़यां आज भी इस कदर हावी हैं कि लडकियां स्कूल-कालेज जाने से वंचित ही रहती हैं.
दूसरे, जब तथाकथित मुख्य धारा का मीडिया कार्पाेरेट और सरकार की गोद में खेलने लगा और लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ होने की गलतफहमी भी न रह गई, तो ऐसे में सही सूचना, सम्यक विश्लेषण और वैज्ञानिक इतिहास और संस्कृति के प्रसार के लिए हम सोशल मीडिया की ओर बहुत उम्मीद की नजर से देख रहे थे. लेकिन, यह उम्मीद भी एक धोखा ही साबित हुई कि इसे भी नफरत, झूठ, अफवाह और अपसंस्कृति के प्रसार के सुनियोजित अड्डे में तब्दील कर दिया गया.
तीसरे,हमारे स्कूल-कालेजों में प्रायः पुस्तकालय हैं ही नहीं. जहां हैं वहां भी चलते नहीं. अपने आस-पास निगाह दौड़ाइए और देखिए कि कितनी ऐसी जगहें हैं जहां पढ़ने को किताबें उपलब्ध हों. हमारा अनुभव तो बेहद निराश करने वाला ही रहा है इस मामले में- पहले गांवों में एकाध घर ऐसे जरूर होते थे जहां नौजवान और बुजुर्ग कम से कम अखबार पढ़ने इकट्ठे होते थे. अव्वल तो व्हाट्सऐप, फेसबुक ने यह अवसर भी समाप्त कर दिए. दूसरे अख़बारों की दुर्दशा भी कौन छिपी हुई है कि जिसे पढ़ने से बेहतर है न ही पढ़ना. इन सबके बीच जो जरूरी बात कहनी है वह यह कि ऐसी बैठकों में भी लड़कियों के लिए तो कोई स्थान कभी नहीं रहा. शहरों में भी जो पुस्तकालय हैं, वे सब भी प्रायः दिखावटी ही होकर रह गए हैं. उनके पास आधारभूत ढांचे का अभाव तो नहीं, लेकिन पढ़ने की संस्कृति के विस्तार में उनकी कोई भूमिका नजर नहीं आती. यही वजह है कि इस योजना की शुरुआत में ही दो बातें प्राथमिक तौर पर तय कर ली गईं कि जरूरी नहीं कि हमारे पास विशालकाय भवन या हजारों किताबों का संग्रह हो. जरूरी यह है कि एक समर्पित व्यक्ति हो जो छोटे रूप में ही सही, इसकी शुरुआत कर सके और लोगों को किताबें पढ़ने को प्रेरित कर सके, उनका फीडबैक जान सके और इस आधार पर आगे की योजना बनाई जा सके.
यह अवसर मिला हमें तब जब हम (मैं, संजय जोशी, गीतेश और ममता) जनसंस्कृति मंच के सातवें राज्य सम्मेलन में आजमगढ़ जा रहे थे. यह ममता के साथ हमारी पहली मुलाकात थी. इस सफर और आजमगढ़ प्रवास
के दौरान हमने इस योजना पर लम्बी बातचीत की, जिसे लेकर ममता बेहद उत्साहित थीं, जो ममता का भी बचपन का सपना था. सम्मेलन के एक सत्र में हमने यह घोषणा भी की कि संभव हुआ तो हम सब जल्दी ही ममता के गांव अग्रेसर में एक पुस्तकालय के उद्घाटन समारोह में मिलेंगे. संजय जोशी के प्रस्ताव पर इसका नाम सावित्रीबाई फुले के नाम पर रखने का निर्णय लिया गया ताकि इसे लड़कियों की शिक्षा से भी जोड़ा जा सके, एक सन्देश दिया जा सके.
तीन जनवरी को सावित्रीबाई का जन्म दिन होता है तो इसकी शुरुआत का दिन भी हमने यही तय किया. इस तरह से हमारे पास अक्टूबर से लेकर जनवरी तक लगभग तीन महीने का ही समय था. इस बीच तमाम साथियों और ममता के अनेक मित्रों के साथ लगातार विचार-विमर्श करके तय समय पर इसकी शुरुआत सुनिश्चित की जा सकी. चूंकि यह पुस्तकालय हमें जनसहयोग से ही संचालित करना है, तो अनेक साथियों की मदद और ममता के परिवार के सहयोग का इसमें बड़ा योगदान रहा. दो तारीख से ही ममता के गांव अग्रेसर, अमेठी में जुटान शुरू हो गई. तय दिन को सुबह कथाकार शिवमूर्ति ने पुस्तकालय का उद्घाटन किया. अपने उद्घाटन वक्तव्य में उन्होंने सावित्रीबाई फुले को याद करते हुए गांव कस्बों की लड़कियों के पढ़ने-लिखने की जरूरत और हकीकत पर रौशनी डाली और इस पुस्तकालय को बहुत सारी जरूरी किताबें और पत्रिकाए देने का वादा भी किया. कायर्क्रम में देश के विभिन्न इलाकों से प्रगतिशील जनसंस्कृति विकसित करने को लेकर चिंतित लोगों की उपस्थिति बेहद उत्साहवर्धक रही. इसके अलावा स्थानीय ग्रामीणों, खासकर महिलाओं और बच्चों की उपस्थिति बेहद आश्वस्तिदायक रही. अब तक पुस्तकालय आकर पढ़ने वाले लोगों में अधिकतर आस-पास की महिलाएं हैं.
ऐसे पुस्तकालयों की स्थापना को अभियान बनाए जाने की योजना है जिसके अंतर्गत इस साल करीब दर्जन भर जगहों पर अलग-अलग नामों से इसकी शुरुआत करनी है. अनेक साथियों ने तो इस कार्यक्रम के बाद स्वयं संपर्क करके अपने यहां भी इसकी शुरुआत की इच्छा व्यक्त की है. हम उम्मीद करते हैं कि निकट भविष्य में ही हम अम्बारी, आजमगढ़, इलाहाबाद, रायबरेली, गोरखपुर, कुशीनगर में ऐसे पुस्तकालयों की स्थापना कर सकेंगे. सावित्रीबाई फुले पुस्तकालय को एक केन्द्रीय पुस्तकालय बनाने की योजना है इस लिहाज से कि अन्य ऐसे पुस्तकालयों को यहां से कुछ किताबों की सहायता की जा सके. और, इसे सिर्फ पुस्तकालय ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक केंद्र के रूप में विकसित करना है. जनपक्षधर फिल्मों के प्रदर्शन के अलावा समय-समय पर पुस्तक मेलों के आयोजन की भी योजना है. कुछ रंगमंच के साथी यहां नाट्य प्रस्तुतियां देने की योजना पर भी काम कर रहे हैं और विज्ञान प्रदर्शनियों की भी योजना है. ये सफर कारवां बन सके, ऐसा हम सबका सपना है और हमारी उम्मीद भी.
- डॉ. रूचि दीक्षित
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