बाल विवाह और दहेज प्रथा: सिर्फ सुधार अभियानों से खत्म नहीं होगी समस्या

बिहार सरकार ने बाल विवाह और दहेज प्रथा के खिलाफ अभियान शुरू किया है. मुख्य मंत्री नीतीश कुमार जगह-जगह अपने मंत्रियों समेत अन्य लोगों को बाल विवाह के खिलाफ और दहेज न लेने-देने, दहेज वाली शादियों का बहिष्कार करने आदि की शपथ दिलवा रहे हैं. इस अभियान का प्रचार और विज्ञापन जिस तरह चल रहा है उससे लगता है कि सरकार इस पर भारी खर्च कर रही है. इस अभियान की समयावधि का तो पता नहीं कि यह कब तक चलेगा. तब तक, जब तक कि ये समस्याएं नीतीश कुमार की नजर में खत्म न हो जाएं. या यह अभियान अगले चुनाव तक के लिए है या भाजपा जैसी घोर पितृसत्तावादी पार्टी के साथ अपने गठबंधन को वैध ठहराने की कोशिश है. जो भी हो सामाजिक जनजागरण का अपना महत्व होता है. और बिहार में विभिन्न दौर के आंदोलनों में शामिल लोगों ने बिना सरकारी सहयोग के भी इस तरह के अभियान चलाए हैं. दशकों से बहुत सारे नौजवानों ने बिना दहेज और बिना पंडित पुरोहितों के शादियां की हैं, धर्म और जातियों के बंधन को तोड़कर शादियां की हैं और आज भी कर रहे हैं. ऐसे प्रयासों का अपना महत्व है और इन्हें प्रोत्साहित भी किया जाना चाहिए. लेकिन, क्या इतने भर से बाल विवाह और दहेज रुक जाएगा ? 

बाल विवाह, दहेज प्रथा, महिलाओं पर हिंसा, परनिर्भरता, संपत्ति अधिकारों से वंचना, स्त्री द्वारा अपने जीवन के बारे में फैसला लेने के अधिकार की अमान्यता आदि कई बारअलग अलग समस्या के रूप में दिखती हैं, कई बार एक-दूसरे में गुंथी हुई नजर आती हैं और इन सबका बुनियादी कारण पितृसत्तात्मक मानसिकता और संस्कृति है जिसका हर स्तर पर विरोध जरूरी है. लेकिन इस पितृसत्ता से लड़ने की ताकत स्त्री में और हमारे समाज में भी आ सके इसके लिए जमीन बनाने का काम किसी भी लोकतांत्रिक सरकार का पहला काम होना चाहिए. यह काम सशक्तीकरण के नारों या सामाजिक जन जागरण अभियानों से एक सीमा में ही होगा. यह काम आर्थिक-राजनीतिक नीतियों के स्तर पर बदलाव के जरिए ही होगा. तो क्या इसके लिए सरकार तैयार है ? यह जमीन तभी बनेगी जब शिक्षा, आत्मनिर्भरता और संपत्ति पर अधिकार बिना किसी किंतु-परंतु के हर स्त्री को हासिल हो सके. क्या इसकी गारंटी देने के लिए यह सरकार तैयार है ? 

आइए, पहले बाल विवाह की समस्या को देखते हैं. बाल विवाह का राष्ट्रीय औसत 47 प्रतिशत है बिहार में यह 60 प्रतिशत है. शहर में 10 में 3 शादियां बाल विवाह होती हैं जबकि ग्रामीण इलाके में 10 में 5 शादियां बाल विवाह हैं. अगर जिलावार आंकड़े देखें तो बिहार के पिछड़े और गरीब जिलों में बाल विवाह का प्रतिशत ज्यादा है. उत्तर बिहार के सीमावर्ती जिले जो उपेक्षित हैं या फिर बाढ़ से हर साल प्रभावित होने वाले जिलों में बाल विवाह ज्यादा होते हैं. जातीय हिसाब से सवर्णों की तुलना में दलितों व कमजोर तबकों में बाल विवाह ज्यादा है (सरकारी सहयोग से टाइम्स ऑफ इंडिया द्वारा प्रकाशित प्रचार पुस्तिका के आधार पर) बिहार स्त्री शिक्षा और पोषण के मामले में भी राष्ट्रीय औसत से काफी नीचे है और प्रति व्यक्ति औसत आय भी कम है. नाबालिग लड़कियों पर हिंसा, बलात्कार, ट्रैफिकिंग की घटनाएं भी रोज अखबार की सुर्खियां बनती हैं. इन सबके समानांतर हमारी सरकार क्या कर रही है ? स्कूलों की संख्या बढ़ाने के बदले कम किए जा रहे हैं. सरकारी विद्यालयों में स्तरीय शिक्षा के बदले प्राइवेट स्कूलों को बढ़ावा दिया जा रहा है जाहिर है गरीब मां-बाप अपने पितृसत्तात्मक सोच के कारण बेटे को ही महंगी शिक्षा दिलाएगा. लड़कियां वंचित होंगी और जल्दी ब्याह दी जाएंगी. एक सामाजिक जांच पड़ताल के दौरान हम लोगों ने देखा था कि गांव में पढ़ी-लिखी लड़कियां हैं लेकिन उनके पास रोजगार नहीं है. अगर घर में कई बेटियां हैं तो एक के बाद दूसरी को ब्याहने की चिंता मां-बाप को लगी रहती है लेकिन सरकार के पास हर लड़की को आत्मनिर्भर बनाने के बदले कन्या विवाह योजनाएं हैं और माता पिता के पास जल्दी-जल्दी बेटी ब्याह करके ‘बोझमुक्त’ हो जाने की सांस्कृतिक चेतना.

दहेज की समस्या गरीबों के साथ ही मध्यमवर्गी परिवारों में भी है और गांवों के साथ शहरों में भी है. बेटी को पराया धन समझने की बजाए धन पर उसका अधिकार भाइयों के बराबर है यह चेतना जरूरी है. बाल संपत्ति पर अधिकार का कानून 1956 में ही बन गया लेकिन इसे व्यवहारिक रूप से लागू किया जा सके इसके लिए कानून में जरूरी सुधार और लागू करवाने का प्रयास किसी सरकार ने नहीं किया. दहेज का विरोध करते हुए नीतीश कुमार भी इस पर चुप हैं. स्त्री के पास कोई संपत्ति नहीं होती और दहेज में मिली राशि या वस्तुओं पर उसका अधिकार नहीं होता क्योंकि वह तो एक तरह का मुआवजा है जो वधू पक्ष वर पक्ष को चुकाता है अर्थी उठने तक बेटी को घर में शरण देने के लिए. जहां लड़कियां पढ़ी लिखी और कमाऊं हैं वहां भी दहेज स्टेट्स सिंबल बन गया है. यह प्रतीक माना जाता है लड़का पक्ष की ऊंची हैसियत का. कई बार यह लड़की पक्ष का अपनी बेटी के प्रति प्यार दिखाने का तरीका भी बताया जाता है लेकिन मां-बाप का यह प्यार तुरंत रफू चक्कर हो जाएगा यदि बेटी दहेज के बदले संपत्ति में अपना हिस्सा मांग बैठे. उनके भाई तुरंत सबसे बड़े प्रतियोगी के रूप में सामने आ जाएंगे. इसलिए संपत्ति का अधिकार सिर्फ सांस्कृतिक सवाल नहीं है यह आर्थिक और राजनीतिक सवाल भी है. चूंकि हमने लड़कियों को इतना सबल नहीं होने दिया है कि वे संपत्ति में अपना हिस्सा मांग सकें, इसलिए कानून में इस तरह के परिवर्तन की जरूरत है कि किसी खास समय में लड़की को पैतृक संपत्ति का हिस्सा अनिवार्य रूप से सौंपना होगा. संपत्ति में अनिवार्यतः हिस्सा देने पर ही दहेज पर थोड़ा अंकुश लगेगा और तब यह प्रथा उस तबके में भी हतोत्साहित हो सकेगी जिसके पास वाकई संपत्ति नहीं है. लेकिन जाहिर है यह पितृसत्ता के जड़ पर चोट करेगा और आज जो लड़की वाले दहेज  लेकर इतनी हाय-तौबा मचाते हैं सबसे पहले वही विरोध में खड़े हो जाएंगे. यह सरकार के संतुलन को भी हिला कर रख देगा और नीतीश कुमार ठीक यहीं पर सबसे कमजोर व्यक्ति हैं. कुर्सी का जरा भी हिलना उन्हें समर्पण की मुद्रा में ले आता है. 

- मीना तिवारी

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