शुचिता - ई.वी. रामासामी पेरियार

(ई.वी. रामासामी पेरियार का तमिल भाषा में लिखा गया यह लेख कुदियसारु नाम की तमिल पत्रिका में 1928 में छपा था. ’वुमेन इंस्लेव्ड’ पुस्तिका में दस लेखों की श्रृंखला का यह पहला लेख था. महिला गुलामी के कुछ बिन्दुओं की शिनाख्त करते हुए पेरियार ने महिला आजादी के प्रति अपनी अवधारणा को इन लेखों में स्पष्ट किया है.)


यदि हम शुचिता शब्द (तमिल-करपू) को विभाजित करें, तो यह माना गया है कि इस शब्द का मूल अर्थ ‘सीखना’ है और व्याकरणिक अर्थ में (कल+पु= करपू) यह ठीक उसी तरह शुचिता (करपू) में बदल जाता है जिस तरह पढ़ाई (पधिप्पू) ‘पढ़ना’ (पाढ़ी) में बदलता है. इसके अतिरिक्त आम मुहावरे में ‘शुचिता’ का एक अर्थ ‘वचन का पालन करना’ भी है, अर्थात किसी से किये गये वायदे के प्रति ईमानदार और सच्चे बने रहना या दो लोगों के बीच हुए करार को निभाना, उसे न तोड़ना. दूसरी ओर यदि इस शब्द को अविभाज्य मानें तो ऐसा लगता है मानो यह महिला के लिये आदर्श से जुड़ा है, हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि आखिर यह ‘आदर्श’, महज महिला के लिये कैसे चिन्हित हो गया. यदि हम इस ‘आदर्श’ शब्द को भी आगे खोजें तो इसके निष्कपट, निष्ठा, और निश्चित रूप से यौन शुचिता (महिला के सन्दर्भ में) जैसे अर्थ खुलते हैं. फिर भी इस बात का किसी के पास सबूत नहीं है कि आखिर अंतिम अर्थ ‘यौन शुचिता’ महज औरत पर ही क्यों लागू होगा क्योंकि इसका अर्थ तो दृढ़ता या निष्ठा भी हो सकता है. 

यदि सन्दर्भगत होते हुए ‘दृढ़ता’ शब्द के अर्थ पर क्रमबद्ध रूप से गौर करें तो इसे ‘पवित्र’ के अर्थ में समझा जा सकता है, जो कि निष्कलंक या निष्कपट हो. अंग्रेजी में ‘पवित्र’ का अर्थ निष्कलंक ही है. इस तरह शुचिता शब्द असल में कौमार्य या सतीत्व के सन्दर्भ में प्रयोग होता है. ऐसे में जबकि यह शब्द महिला या पुरुष किसी विशेष के सन्दर्भ में नहीं प्रयुक्त हुआ है, तो ‘पवित्र’ शब्द को तो सम्पूर्ण मानवता के सन्दर्भ में देखा-समझा जा सकता है. अर्थात सामान्य रूप से यौन सम्भोग में पवित्रता. अतः शुचिता (करपू) का सम्बन्ध महज महिला से नहीं है और एक बार यौन सम्भोग हो गया तो महिला और पुरुष कितने भी ’पवित्र’ क्यों न हो, यौन शुचिता का दावा नहीं कर सकते.(1) परंतु मेरा यह मानना है कि जब यह महज आर्य विमर्श के सन्दर्भ में प्रासंगिक होता है, तब यह शब्द गुलाम/अधीन का अर्थ ले लेता है. गुलाम जो कि महिला है, जिसके लिए उसका पति देवता है, जो इस गुलामी के लिए द्रुण-प्रतिज्ञ है और जिसके लिए उसके पति के सिवाय किसी का कोई महत्व नहीं है. इसके साथ ही उस पुरुष के लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द ’पति’ जिसका अर्थ मालिक, स्वामी या नायक है, स्वतः ही पूरा परिदृश्य स्पष्ट कर देता है. हालांकि नायिका शब्द (तमिल में) पुरुष-महिला के प्रेम संबंधों में ही इस्तेमाल होता है, परिवार की परिसीमा में रह रही महिला के लिए सही मायने में यह शब्द इस्तेमाल नहीं होता है. ऐसा जान पड़ता है कि नायक-नायिका जैसे बराबरी के शब्द कहानियों और पुराणों में महिला-पुरुष प्रेम सन्दर्भों के खास सम्बन्ध में ही इस्तेमाल होते हैं. इसीलिये जहां कहीं प्रेम या काम भावना का सन्दर्भ है वहां नायक-नायिका शब्द का इस्तेमाल है और जहां शुचिता की शर्तों को व्याख्यायित किया गया है वहां सन्दर्भ नियंत्रण के अधीन महिला तक सीमित है और इसके साथ ही पति का वर्णन ईश्वर तुल्य प्रभुत्व के गुणों के रूप में है.

महज इसलिए कि ‘शुचिता’ ‘पति के प्रति निष्ठा’ के रूप में परिभाषित की गई है और पुरुष संपत्ति, आय और शारीरिक बल के मामले में ज्यादा ताकतवर भी बनाए जाते हैं, तो महिला की गुलामी और पुरुषों के हिन्सात्मक रवैये के लिए ज्यादा अनुकूल स्थितियां बन जाती हैं, मानो कि शुचिता का विचार पुरुषों पर लागू ही न होता हो. यह अन्यथा नहीं है. इसके अतिरिक्त यह पुरुष वर्चस्व ही है जिससे कि हमें अपनी भाषा में पुरुषों के लिए शुचिता संबंधी कोई अलग शब्द ही नहीं मिलता. यह कहा जा सकता है कि रूस के अलावा कोई ऐसा धर्म, देश या समाज नहीं है जो इस मसले पर ईमानदारी से व्यवहार कर रहा हो. उदाहरण के लिए हालांकि ऐसा लगता है कि यूरोप में महिलाओं को बहुत आजादी है पर महिला और पुरुष के लिए इस्तेमाल होने वाली मूल वैचारिक श्रेणियों
में ही ऊंचे और नीचेपन का भाव अन्तर्निहित है, और कानूनी संरचना भी ऐसी है जिसमें पुरुषों के प्रति महिला की आज्ञाकारिता की भावना को बढ़ावा मिले.

दूसरे समाजों में नियंत्रण के तमाम तरीके अभी भी यथावत जारी हैं. महिला को चारदीवारी के भीतर भी परदे में रहना पड़ता है और अगर कभी बाहर निकलने का साहस करें भी तो उन्हें अपने चेहरे ढकने होते हैं. पुरुष तो एक ही समय में कई महिलाओं से विवाह कर सकते हैं, जबकि महिला एक साथ एक से ज्यादा पुरुष के साथ नहीं रह सकती. हमारे देश में अगर एक बार महिला पुरुष का सम्बन्ध स्थापित हो गया तो जहां तक महिला का सम्बन्ध है तो वो अपनी मृत्यु तक आजाद नहीं है, जबकि पुरुष उसके सामने ही कितनी ही महिलाओं के साथ रह
सकता है. अगर पुरुष किसी महिला को अपने घर में रखता है और उसके साथ नहीं रहता तो महिला महज जीविका की ही उम्मीद कर सकती है, खुशी और शारीरिक इच्छा की पूर्ति की कत्तई नहीं. ऐसी स्थिति केवल इसलिए नहीं चल रही और मजबूत होती जा रही है कि धर्म और कानून इसे प्रश्रय देते हैं बल्कि इसलिए भी है कि यह सब स्वयं महिला समाज द्वारा स्वीकारा जाता है. जिस तरह शताब्दियों के चलन के नाते तथाकथित दलित तबके असल में यह मानने लगे हैं कि वे वास्तव में दलित हैं और हमेशा चुपचाप आज्ञापालन के लिए तैयार रहते हैं, ठीक उसी तरह महिला समुदाय भी खुद को पुरुषों की संपत्ति मानता रहा है, और इसलिये उनके नियंत्रण में रहते हुए उनके क्रोध का निशाना बनने से बचना ही अपना कर्त्तव्य समझने लगी हैं. आजादी उनकी चिंता का विषय ही नहीं है. अगर महिलायें सही मायने में आजाद हों तो यौन शुचिता का महिला के प्रति पक्षपात पूर्ण और थोपा गया चलन खत्म हो जाएगा और उसके स्थान पर इसका पक्षपातविहीन, समतापूर्ण और स्वैच्छिक चलन स्थापित होगाविवाह के तमाम ऐसे प्रकारों को समाप्त होना चाहिए, जो कि यौन शुचिता के नाम पर पति-पत्नी दोनों को प्रेमविहीन जीवन चलाये और झेले जाने को बाध्य करते हैं. ऐसे धर्म और कानून का निश्चित रूप से खात्मा हो जाना चाहिए जो पति की हिंसा के प्रत्युत्तर में पत्नी को धीरज की सीख देते हों. ऐसी सामाजिक तानाशाही का नाश होना चाहिए जो महिला को उसके सच्चे प्रेम और लगाव को कुचल कर शुचिता के लिये और किसी अन्य व्यक्ति के साथ जीवन गुजारने को बाध्य करे.

जहां इस तरह की असहिष्णुता नहीं है, वहीं लोगों के बीच सच्ची, सहज और स्वैच्छिक शुचिता फल-फूल सकती है. दूसरी ओर कमजोर के लिए ताकतवर के बाध्यकारी, पक्षपातपूर्ण नैतिक आदेश और नियम शुचिता के बाध्यकारी और गुलाम रूप ही सामने ला सकते हैं. और मैं नहीं समझता कि मानव समाज में इससे अधिक निन्दनीय कोई स्थिति हो सकती है. (कुदियारासु, 8-11-1928)

- (क्रिटिकल क्वेस्ट से छपी ‘वुमेन इंस्लेव्ड’ पुस्तिका के पहले अध्याय का थोड़ा सम्पादित अनुवाद)

1. करपु शब्द मोटे तौर पर शुचिता के रूप में प्रयोग किया जाता है. यह तमिल जगत में महिलाओं पर व्यापक और लगभग पूरी तरह लागू होने वाली, हालांकि रूमानी सांस्कृतिक आचार संहिता के रूप में देखा जाता है. पेरियार इस आधारभूत संकल्पना को समझने की कोशिश करते हैं और इसके पीछे की ‘वर्चस्व’ की प्रक्रिया को सामने लाते हैं.

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