सरकारी विज्ञापनों की लेंस से : ‘अहा ग्राम्य जीवन’
लाल बॉर्डर और नीले बॉर्डर की झक सफेद साड़ी पहने आशा और आंगनबाड़ी कर्मी बेहद आत्मीय मुस्कान के साथ खुशगवार, डॉक्टर खुश, नर्स खुश, मां अपने नवजात शिशु को निहारती खुश, पिता खुश, सास खुश। स्वादिष्ट दाल, ताजा हरी सब्जियों, सलाद, घी लगी रोटियों, बारीक सपफेद चावल से भरी गरम-गरम दिखती खाने की साफ-सुथरी चमकती स्टील की थाली। सुंदर, सुख-समृद्ध से पूर्ण हरा-भरा गांव, सिर पर साड़ी का पल्ला रखे सुंदर मुसकुराती बहू, उसकी देखभाल करता सम्पन्न ग्रामीण परिवार, छोटी-छोटी हंसती खिलखिलाती दो चोटियां बांधे ग्रामीण बच्चियां, शर्माती सकुचाती युवतियां और अंत में प्रधानमंत्री जी की महिलाओं के हित में देश से बेहद मार्मिक अपील। दूरदर्शन और कभी-कभी निजी समाचार-चैनलों पर भी प्रसारित होने वाले सरकारी विज्ञापनों के ये कुछ अक्सरहा देखे जा सकने वाले चित्र हैं।
इनमें से अधिकांश विज्ञापनों का प्रसारण सरकार के एक कम नामचीन मंत्रालय, ‘महिला एवं बाल विकास मंत्रालय’ के सौजन्य से होता है। मंत्रालय का अपने बारे में कहना है कि उसका काम महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाना है, समाज में उनके पक्ष में माहौल बनाते हुए उनकी बेहतरी के रास्ते खोलने हैं। पर रोचक है कि ऐसी घोषणा की गारंटी करने वाले मंत्रालय को नाम दिया गया ‘महिला एवं बाल विकास’। इस नाम को सुनने वाले के मन में आम तौर पर पहली आम छवि यही बनेगी कि मानो ये दोनों (महिला एवं बच्चे) कोई अविभाज्य श्रेणी हों जिनके लिए एक ही मंत्रालय की व्यवस्था की गई है। ऐसा कैसे हो सकता है? कम से कम जीव विज्ञान तो ऐसा नहीं मानता. अब अगर राजनीति और समाज विज्ञान इसे मान रहा है, और बाकायदा विज्ञापित भी कर रहा है, तो इस मानने के मायने शिनाख्ततलब हैं। मंत्रालय की नजर में महिला की प्राथमिक पहचान उसकी मां बनने की क्षमता से तय हो ही रही है. इसके साथ ही इसके लोगो (प्रतीक) में भी मां और एक बच्चे (लड़के) की आकृति एक साथ दिखती है। अब इसे एक महिला के लिए ’मां’, वह भी ‘बेटे की मां’ को आदर्श के रूप में प्रचारित करना न कहें तो क्या कहें? अब इतने सारे संकेत एक साथ होंगे तो इनकी असल मंशा पर बात तो होगी ही!
खैर इस मंत्रालय के किए-धरे, नीति-कुनीति पर चर्चा फिर कभी. अभी थोड़ा गौर करते हैं इनके द्वारा ‘जनहित’ में प्रसारित कुछ विज्ञापनों पर। मंत्रालय की ओर से जारी ‘गर्भ के समय स्वास्थ्य का ध्यान’, ‘उस समय की खुराक’, ‘नवजात की सुरक्षा’ सीरीज, ‘जननी सुरक्षा’, ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ जैसी सीरीज के सभी विज्ञापनों में कुछ बातें बिलकुल एक सी दिखती हैं. लगभग इन सभी विज्ञापनों में जो पहली समान बात दिखती है वह है, इन सबको गांव आधारित दिखाने की कोशिश। गौरतलब है कि लाखों उपभोक्ता सामानों के टीवी पर चल रहे विज्ञापनों में गांव और गांव के लोगों की उपस्थिति लगभग शून्य है, जबकि इस दूसरी श्रेणी के विज्ञापनों का निन्यानवे फीसदी फिल्मांकन गांव केन्द्रित दिखाने की कोशिश है। ऐसा क्यों है इसका जवाब तो देश की बाजार और अर्थ नीति की शिनाख्त ही सही रूप में दे सकती है. सरकारी विज्ञापनों में भी दिखाये जा रहे ये गांव भारत के गांवों की कौन सी छवि पेश करते हैं? आइये, हम यहां थोड़ा इस आयाम पर गौर करते हैं.
विज्ञापनों के कैमरों में कैद इन गांवों में गरीबी, बेरोजगारी, सूखा, बाढ़, बदहाल खेती, पलायन जैसी हकीकतों के चित्र ढूंढ़े भी नहीं मिलेंगे. पूरे फिल्मांकन के लिए गांव दिखाने का पैमाना है, पीछे चल रहे हिन्दुस्तानी वाद्ययंत्रों के धीमे संगीत के बीच साफ-सूती पुराने चलन के कपड़ों, साज-सज्जा में हंसते मुसकुराते लोग, एल्यूमिनियम/स्टील के बर्तनों का इस्तेमाल, ज़मीन पर या पलंग पर ही बैठ कर खाना खाना, घर में कुएं या हैंडपंप से पानी आना, घर-अस्पताल का रंग-रूप, जो कि आमतौर पर भारत के किसी भी छोटे शहर या कस्बे का आम दृश्य हो सकता है आदि। शायद इसके पीछे का कारण विज्ञापनों की यह आधारभूत सैद्धान्तिकी है जिसके तहत विज्ञापन बनाने वाला इस बात का ध्यान रखता है कि पर्दे पर चल रही तस्वीरें ऐसी हों जिनकी दर्शक कामना कर सके और साथ ही उसे यह विश्वास भी जम सके कि वो स्थितियां उसके लिए भी संभव हो सकती हैं या कम से कम काम्य हो सकती हैं। इसके साथ ही ये विज्ञापन इन्हें देखने वाले सभी लोगों की नजरों में एक सा असर नहीं छोड़ते। जहां शहरी मध्यवर्ग में शायद यह संदेश जाता है कि "गाँव के लोग कम पढे़-लिखे हैं, उनके पास जानकारी कम है, वे पुरानी तर्ज के ईमानदार, पर कम समझ के लोग हैं जिन्हें समझाने की जरूरत है, वे पिछड़े हैं, विकसित नहीं हैं इसलिए उनके प्रति सहानुभूति की जरूरत है जबकि वे, यानी शहरों में रहने वाले चूंकि इन सब बातों को पहले से ही समझते हैं इसलिए ज्यादा विकसित, ज्यादा सचेत लोग हैं।" वहीं गांव के दर्शकों के भीतर ये विज्ञापन कहीं न कहीं यह उम्मीद बिठाते हैं कि सरकार को उनकी तकलीफों के बारे में पता है और सरकार और उसके मंत्रालय उनके बारे में सोचते हैं। साथ ही कहीं न कहीं इससे यह भी विश्वास बनता है कि पर्दे पर दिख रहीं काम्य जीवन स्थितियां सरकार की मदद से संभव है। इस विश्वास को विकसित करने में ही विज्ञापन की सार्थकता और सफलता निहित है।
दूसरी जो बात इन विज्ञापनों में गौरतलब है, वह है परिवार का ढांचा। भारतीय संयुक्त परिवार को आदर्श के रूप में स्थापित करने की सतत कोशिश। एक ऐसा परिवार जिसमें मां सरीखी सास, पिता तुल्य ससुर, भाई की तरह ठिठोली करने वाला देवर, बहन की तरह सुख-दुख की साझीदार ननद और हर हाल में ध्यान रखने वाला मुसकुराता पति हो। उसके बाद एक बच्चे की कमी रह जाती है जिसके लिए ये विज्ञापन हैं। तो उसी बच्चे के लिए पूरा घर एकजुट हो घर में बाहर से आई बहू के लिए पलकें बिछाये है, उसका पूरा ध्यान रखता है, सास उसके खाने का पूरा ध्यान रखती है जिसमें ससुर को हुक्का पीने के लिए धमकाने से लेकर खुद से बहू की थाली में घी लगी रोटियां डालने और उसे इसरार के साथ खिलाने का जतन करती है। ननद लगातार हैंडपंप चलाती है ताकि साफ-सफाई में कोई कमी न रह जाए. पति तो साये की तरह मुसकुराते हुए उसके साथ रहता है। कहीं कोई कड़ुवाहट नहीं। पूरा परिवार एक स्वस्थ बच्चे के लिए डॉक्टर और आशाकर्मी की सलाह पर अमल कर रहा है (नवजात की सुरक्षा सीरीज के विज्ञापन)। एकबारगी हमारी मध्यवर्गीय नजर से तो ऐसा लगता है कि ये विज्ञापन मानो ऐसा कहते हैं कि इन लोगों के पास सब कुछ है पर इन्हें पता ही नहीं है कि इसके इस्तेमाल से ये खुश रह सकते हैं। इनके पास ताजा/अच्छा खाना है पर ये खाते नहीं इसलिए इन्हें इसके बारे में बताया जाए, तमाम सुविधाओं और कर्मचारियों से लैस अस्पताल है पर ये जाते ही नहीं और घर पर ही बच्चा पैदा करने का खतरा मोल लेते हैं. अच्छा खासा सहारा देने के लिए परिवार का पूरा ढांचा है पर इन्हें पता ही नहीं है कि कैसे एक दूसरे का सहयोग करना है. तो सरकार का काम है कि इन्हें इस बारे में बताए कि सुखी ग्राम्य जीवन का आदर्श पूरा हो सके। जबकि ग्रामीण आबादी के लिए ये विज्ञापन उनकी खुद की खस्ताहाल जिंदगी से निजात की एक उम्मीदपरक तस्वीर छोड़ते हैं, जो भले ही कितनी ही आभासी हो।
निश्चित रूप से यही राजनीति और समाज-व्यवस्था की आदर्श परिवार को लेकर संकल्पना है। जो जाने-अनजाने ‘वंश’ के बढ़ाव की प्रक्रिया केन्द्रित परिवार संरचना के आदर्श को पुख्ता करती रहती है। ये विज्ञापन इसी संकल्पना की उम्मीदपरक तस्वीर बनकर आते हैं. इस परिवार में बाहर से आई महिला, जो कि घर की बहू है, निमित्त मात्र है। उसे सारी देखभाल इसलिए मिल रही है कि वो एक ‘स्वस्थ शिशु’ (जो कि कहे-अनकहे रूप में लड़का ही है) को जन्म दे। उसे पौष्टिक खाना इसलिए खाना है कि बच्चा स्वस्थ पैदा हो और जन्म के बाद लंबे समय तक उसे दूध पिला सके, साफ-सफाई इसलिए रखनी है ताकि बच्चे को कोई खतरा न हो। गौरतलब है कि लगभग मां-बच्चे को लेकर तमाम जागरूकता भरे विज्ञापनों में महज शिशु केंद्र में है. मां की भूमिका परिवार की इस ‘पूंजी’ को लाने और संभालने की है. सारा खान-पान, देखभाल स्पष्ट रूप से स्वस्थ बच्चे के लिए है न कि स्वस्थ मां/महिला के लिए। इन विज्ञापनों के प्रत्येक दृश्य इस बात की तसदीक करते हैं। ऐसे ही पति की सहयोगी की भूमिका भी दिलचस्प रूप में दिखती है. ‘जैसे बच्चा साल भर का हो गया है, ऊपर का खाना खाने लगा है, तो बच्चे की मां अपनी ड्यूटी पर वापस जाते हुए चूल्हा जला कर उसके लिए पौष्टिक खाना बनाना शुरू कर दी है, उसे खिलाने की कोशिश कर रही है और पति मुसकुराते हुए बैठ कर ट्रान्जिस्टर सुन रहा है और जब वो देखता है कि बच्चा नहीं खा रहा है तो उसे बहलाने के लिए आता है और इस मदद से पत्नी बच्चे को खाना खिलाती है (नवजात की सुरक्षा सीरीज का ही विज्ञापन)। वैसे तो ये बेहद पुरसुकून भरा दृश्य लगता है जहां पति को भी बच्चे की देखभाल में जिम्मेदारी निभाते, पत्नी की मदद करते दिखाया गया है। पर देखने वाले के मन में पति के मदद की यह छवि किस रूप में उतरती है? क्या यह दृश्य पति-पत्नी की घर बसाने-चलाने की स्वाभाविक बराबर की जिम्मेदारी के रूप में दिखता है? क्या सीधे-सीधे देखने वाले के मन में यह भाव नहीं उभरता कि परिवार का केंद्र बच्चा ही है जिसको दुनिया में लाने से लेकर पालने तक की मुख्य जिम्मेदारी महिला की है और पति का यह सहयोग पर्दे के उस पार की हकीकत है जो कि ‘काम्य’ है, जिनकी वजह से ही ये विज्ञापन महत्वपूर्ण हो जाते हैं। कुल मिलाकर हमारे परिवार के स्थापित पितृसत्तात्मक ढांचे को ये विज्ञापन सुखमय आदर्श बनाकर पेश करते हैं। ऐसा परिवार जिसमें वर्चस्व का श्रेणीक्रम जस का तस रहता है. हां, उसका स्वरूप आक्रामक न होकर सामंजस्यपूर्ण है। इसे कहीं से कोई चुनौती पेशतर नहीं, क्योंकि इसमें खलल डालना नहीं बल्कि इनके समरस स्वरूप को सामने लाना ही इन विज्ञापनों का ध्येय है। पितृसत्तात्मक परिवार की स्थापित शर्तों पर कहीं से कोई उंगली नहीं उठती है। यहां बहू अपनी मां/ बहन/ भाई/ पिता या सहेली के साथ अस्पताल नहीं जाती, ससुराल पक्ष के किसी सदस्य के साथ ही जाती है, आसपास के देखभाल भरे माहौल के प्रति सर झुकाए कृतज्ञ दिखती है, काम पर नहीं जाती जहां से उसे मातृत्व अवकाश लेना हो, वह बाकायदा हर हाल में सिर पर आंचल रखती है सोते वक्त, बच्चे को दूध पिलाते वक्त, डॉक्टर के पास जाते वक्त, खान खाते वक्त हर समय। उसके अपने मां-बाप, ब्याह के पहले के उसके घर-परिवार की छाया तक भूले से कभी टीवी स्क्रीन पर नहीं आती, ब्याह के दो साल के अंदर मां बनती है, सही उम्र में सरकारी उम्र जो अनकहे तौर पर 30 से ऊपर की कतई नहीं।
इसके साथ ही कुछ और पहलू भी हैं जिनकी ओर ये विज्ञापन ध्यान खींचते हैं जैसे इनमें दिखाये जा रहे पात्र आमतौर पर उत्तर भारत के हिन्दू परिवार से आते हैं, जिसमें बहू सीधे पल्ले में साड़ी पहनती है, बिंदी और पूरी मांग भर सिंदूर लगाती है जो कि हिन्दी भाषी इलाके की खास पहचान है। खाने की थाली से लेकर पीछे के दृश्य तक सभी खास हिन्दी भाषी राज्यों, वह भी वहां के ग्रामीण उच्च जातीय, संभ्रांत हिन्दू परिवारों के चलन के मुताबिक गढ़े गए दिखते हैं। लगभग डेढ़ अरब की आबादी वाले इस देश में न जाने कितने धर्मों, संप्रदायों के लोग रहते हैं तो सरकार द्वारा देश भर में प्रसारित होने वाले विज्ञापनों के लिए प्रतीक स्वरूप यही इलाका और इस इलाके के भी ख़ास समुदाय क्यों चुने गए? इतनी अलहदा रहन-सहन और पहचान को इस एक ही तरह के खांके में समेट देना क्या दिखाता है? किसी खास क्षेत्र के खास लोगों को ही प्रतीक बनाने के क्या मायने हैं? राष्ट्रीय अभिव्यक्ति का क्या आधार होता है, क्या उसका पैमाना भी देश की राजनीति के समीकरणों से तय होता है?
परिवार, समाज और श्रेणीक्रम की ये व्यवस्था किसके हित में हैं। हालांकि मंत्रालय अपने बारे में बताते हुए संकल्पना की पहली पंक्ति में लिखता है कि हिंसामुक्त माहौल में सम्मान के साथ रह रही और देश के विकास में बराबर की भागीदारी कर रही सशक्त महिला (Empowered women living with dignity and contributing as equal partners in development in an environment free from violence and discrimination) अगर सच में मंत्रालय की ऐसी परिकल्पना है तो इसके विज्ञापनों में पति/परिवार पर पूरी तरह आश्रित महिला के चित्रण पर इतना जोर क्यों? क्यों काम काज में बराबर की हिस्सेदारी के मौके और बराबर की मजदूरी का हक, सम्मान, स्वतंत्रता, हिंसा मुक्त माहौल जैसी घोषित प्रस्थापनाएं इन विज्ञापनों में सिरे से गायब हैं? आखिर क्यों इनमें एक भी कामकाजी महिला मुख्य पात्र नहीं के रूप में दिखती ? बल्कि पर्दे पर दिखने वाली सारी कामकाजी महिलायें (डॉक्टर, आशा, आंगनबाड़ी कर्मी) इस मुख्य पात्र मां की सहयोगी ही क्यों दिखती हैं? क्यों एक भी विज्ञापन इन कामकाजी महिलाओं के हक, उनके वेतन, छुट्टियां, काम के माहौल, घरों में इनकी हालत को लेकर नहीं हैं? गौरतलब है कि आशा आंगनबाड़ी कर्मियों के बारे में बात करते हुए भी विज्ञापन लगातार उनकी ड्यूटी तो गिनाते हैं पर भूले से भी यह तक नहीं बताते सरकार ने उनके लिए क्या देय तय किया है, क्या सहूलियतें तय की हैं जिन पर उनका हक है जिससे ये तथाकथित आदर्श परिवार की धुरी उस स्वस्थ शिशु को लाने में और अच्छे तरीके से मदद कर सकें।
साथ ही यह बात भी पूछने की है कि क्या इन सरकारी विज्ञापनों के पीछे के निहित हित भी अन्य सामान बेचने वाली देशी-विदेशी कंपनियों की तरह ही हैं? क्या यहां भी किसी तरह के मुनाफे का वार्षिक या पंचवर्षीय लक्ष्य है? क्या यह सब कोशिशें सच में केवल भारतीय जनता की स्वास्थ्य की चिंता और सरकार द्वारा उपलब्ध कराई जा रही सुविधाओं की जानकारी के मद्देनजर है या इससे ज्यादा की कोई बात है जिसे पहुंचाने की जुगत है? एक लोकतांत्रिक देश में लोकतन्त्र को मजबूत करने के लिए चुनी हुई सरकार की जिम्मेदारी क्या इस रास्ते से पूरी हो सकती है जबकि इसे कमजोर करने वाले सामंती पहलुओं को इन निर्दाष विज्ञापनों के माध्यम से लोगों के सामने आदर्श बना कर पेश किया जा रहा हो? इन सवालों के जवाब ढूंढ़ने बेहद जरूरी हैं. या यह कहें कि इन जैसे तमाम सवालों के साथ इन विज्ञापनों की राजनीति को बेपर्दा किया जाना बेहद जरूरी है...
- तूलिका
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