गंउवा बनाव क्रंतिकरिया, नजरिया खोल ए भईया
"बेशकीमती हैं हम
एक दिन हमारे दुःख
बन जाएंगे
दुनिया के अचरज।"
'वुमनिया' एक डाक्यूमेंट्री फ़िल्म है जो विगत 30 सितंबर को बिहार म्यूजियम के ओरिएंटल हॉल में दिखाई गई। यह फ़िल्म 'नारी गुंजन' नाम की एक स्वयंसेवी संस्था (एनजीओ) के द्वारा संचालित किये जानेवाले बिहार के एक महिला बैड 'सरगम' को केंद कर बनाई गई है।
बरसों पहले नोट्रेडम संस्था से जुड़कर केरल से बिहार आयी सुधा वर्गीज़ ने 1987 में 'नारी गुंजन' संस्था बनायी। यह संस्था बिहार के कुछ जिलों में दलित-महादलित समुदाय के बीच स्कूलों और स्वयं सहायता समूहों का संचालन करती है। 2013 में पटना से सटे दानापुर के ढिबरा गांव के दलित टोले में नारी गुंजन के स्वयं सहायता ग्रुप से जुड़ी महिलाओं ने यह सरगम बैंड बनाया था। 'वुमनिया' सरगम बैंड की महिलाओं की गाथा है।
अपने साथियों व दर्जनों उत्साही दर्शकों के साथ बैठकर मैंने करोड़ों की लागत से बने बिहार म्यूजियम के एक वातानुकूलित हॉल में हो रहे इस फ़िल्म को देखा। अब जबकि इस शीत गृह का दरवाजा बंद हो चुका है, नियोन की दूधिया रोशनी की जगह वहां अंधेरा है और उत्साही दर्शकों की तालियों की गूंज बस स्मृति का हिस्सा भर बनकर रह गयी हैं, मैं 'वुमनिया' को लेकर आपसे मुख़ातिब हो रहा हूँ।
'वुमनिया' एक सफल फ़िल्म है क्योंकि यह बिहार में महिला सशक्तिकरण के नाम पर अबतक घटित हो चुकी कई-कई भयावह व त्रासद कथाओं के बीच से जीवित बच रही चंद कथाओं में से एक है। यह 'रेयरनेस' ही इसका प्राण तत्त्व है। इसी वजह से यह कथा प्रिंट व श्रव्य माध्यमों में भी पहले ही खासी जगह पा चुकी है। बीबीसी और अलजज़ीरा ने भी इसे प्रमुखता से प्रचारित किया है। सरगम बैंड केबीसी का मेहमान बना है। अखबारों ने उसपर फीचर बनाये हैं और केंद्र-राज्य सरकारों ने अपने आयोजनों में इस बैंड को जगह दी है।
ब्रांडिंग बिहार उर्फ बिहार में बहार
विश्व बैंक प्रायोजित उदारीकरण के दौर में सरकारी योजनाओं को जब पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप मोड़ में लाया गया तो उनमें एनजीओ की भागीदारी बढ़ गई। 2005 में सत्ता हासिल करने के साथ ही नीतीश कुमार ने इसे खूब बढ़ाया। अपने सीमित जनाधार को देखते हुए दलितों (महादलितों)और महिलाओं को निशाने पर रखा। सरकारी प्रचार का एक प्रमुख एजेंडा बना - महिला सशक्तिकरण। पंचायतों व स्कूल शिक्षकों की बहाली में 50 फीसदी आरक्षण, आशा-आंगनबाडी में रोजगार, स्कूली बच्चियों की साइकिल-पोशाक, कन्या विवाह व हुनर योजनायें बनीं।
सुशासन और न्याय के साथ विकास की जुगलबंदी में महिला सशक्तिकरण का राग सर्वाधिक सुरीला लगता था। सरकार, यूनिसेफ और बिहार शिक्षा परियोजना के साथ संगत करते हुए एनजीओ व मीडिया ने बिहार में महिला रोल मॉडलों को तलाशना शुरू किया और उनकी फौज ही खड़ी कर दी। बी-गर्ल अनिता कुशवाहा और किसान चाची राजकुमारी देवी (मुजफ्फरपुर), कचरे वाली किरण और बाल मजदूर चुनचुन कुमारी (पटना), मशरूम उत्पादक लालमुनि देवी (नौबतपुर, पटना) स्कूल वार्डेन तहसीन बानो (गया), आंगनबाड़ी सेविका जूली (खगड़िया) के साथ ही नई-नई कायम की गई पंचायती राज व्यवस्था में शामिल कई महिलाओं, खेल की दुनिया - कबड्डी, कराटे, फुटबॉल, क्रिकेट की खिलाड़ियों और स्लम और रेड लाईट इलाकों में सामाजिक काम से जुड़ी औरतों-बच्चियों ने सरकारी पोस्टरों, विज्ञापनों, अभियानों और टेक्स्ट बुक किताबों में जगह हासिल कर ली। इस 'फील गुड' को 2015 चुनाव का स्लोगन बना दिया गया - 'बिहार में बहार है।'
टूट गए सारे सितारे
मुझे ठीक-ठीक पता नहीं कि महिला सशक्तिकरण के उपरोक्त सितारों की मौजूदा जिंदगी कैसी है। अब उनकी चर्चा तक नहीं होती। सुधा वर्गीज़ जी को इसी दौर में पद्मश्री की उपाधि जरूर हासिल हुई।
और हां, साल भर पहले एक एनजीओ द्वारा करोड़ों रुपयों की सरकारी राशि के लूट का उद्घाटन भी हुआ। इस 'सृजन घोटाला' की ने मुख्य सूत्रधार मनोरमा देवी भी 'समाजसेवी' पायी गयी थीं। सुनते हैं कि उनकी भी समाज सेवा की दुदुंभी बजाते हुए नीतीश सरकार ने पद्मश्री से नवाजने की सिफारिश कर डाली थी. अगर ऐसा होता तो इस क्षेत्र से पद्मश्री पानेवाली वे दूसरी महिला होतीं।
'सृजन' ने तो नीतीश सरकार व एनजीओ तंत्र के 'महिला सशक्तिकरण' विद्रूप चेहरे से पर्दा भर खिसकाया, छह माह बाद tiss की रिपोर्ट के जरिये बिहार के आश्रय गृहों में होनेवाली अनियमितताओं और उनमें रह रही महिलाओं-बच्चियों के साथ हिंसा और बलात्कार के सनसनीखेज खुलासे ने तो उसके वीभत्स और बर्बर रूप को पूरीतरह से खोलकर रख दिया।ब्रजेश ठाकुर और मनीषा दयाल सरीखे सोशलाइटों और नीतीश-मोदी सरकार के मंत्रियों-अधिकारियों की दरिंदगी तो उजागर हुई ही इसकी जांच की आंच रंगमहल तक जा पहुंची। यह तथ्य यह भी है कि पद्मश्री सुधा वर्गीज़ के 'नारी गुंजन' पर भी कलंक ये काले धब्बे लग चुके है।
सरगम की तान
इन सारी गद्दारियों, धोखाधडियों और विफलताओं के बीच सरगम बैंड, जैसा कि मैंने पहले ही कहा है, एक हद तक सफलता की कहानी है। इस 'रेयरनेस' की अच्छे से ब्रांडिंग करती है फ़िल्म 'वुमनिया'। यह कथ्य के अनुरूप भाषा में फिल्माई गयी है। दृश्यांकन में पानी भरे खेत, धान के ताजे बिचड़े, धरती की हरीतिमा के बीच जोश से दमकते चेहरों की सुंदर लयकारी है। बैंड की महिलाओं का चटक रंग पहनावा तथा सिंदूर, महावर और नेल पॉलिश से अपनी मांग, पैरों व नाखूनों को सजाने के दृश्य नजर आते हैं। मुर्गे-मुर्गियां या बकरी-छौनों की मौजूदगी भी इसमें कहीं से बाधक नहीं बल्कि इसी सुखद परिवेश का विस्तार लगते हैं तथा उनके बैंड वादन में श्रम और क्रीड़ा के बीच की दीवार ओझल हो जाती है।
उड़ान को फड़फड़ाते पंख
स्क्रीनिंग के दौरान मेज़बान मो. यूसुफ साहब (निदेशक, बिहार म्यूजियम) ने कहा कि यहां इस फ़िल्म के प्रदर्शन का एक उद्देश्य म्यूजियम की एलीट छवि को तोड़ना भी है। सुन रहे हो न पटना के गरीब संस्कृतिकर्मियों! बता दें कि मुख्यतः पुराने व ऐतिहासिक पटना म्यूजियम की कलाकृतियों को उठाकर सजाये गए इस म्यूजियम में झांकने भर के लिए सौ रुपये का टिकट लगता है।
ट्रेनर गुंजन जी ने प्रैक्टिस के सवाल पर उनके परिजनों के शुरुआती मर्दाना विरोध का जिक्र करते हुए मुख्यतः खेतों में दिहाड़ी मजदूरी करनेवाली अशिक्षित व अल्पशिक्षित महिलाओं को सिखाने में दरपेश दिक्कतों व तरीकों पर रोशनी डाली। सुधा वर्गीज़ ने महिलाओं की सृजन क्षमता को सामने लाने और वंचित तबकों को 'मेहनत' के जरिए अपनी आर्थिक हालत सुधार लेने का मंत्र दिया। आयोजक सुशील कुमार (समन्वय के संयोजक व बिहार पुलिस सेवा के अधिकारी) ने बताया बैंड बनाने के बाद से इन महिलाओं में आत्म विश्वास आया है और अब वे पुरुषों की मदद के बिना ही दूर तक की, यहां तक कि हवाई यात्राएं भी कर लेती हैं और होटलों, रेस्तराओं समेत सभी सार्वजनिक जगहों पर मौजूद नागरिक सुविधाओं का बेधड़क उपयोग करती हैं। बैंड लीडर सविता देवी ने सरगम बैंड के गठन तथा पटना और दिल्ली के सरकारी आयोजनों में भागीदारी और जनता को संबोधित करने के अनुभव रखे। फ़िल्म निर्माता आकाश अरुण ने सूचना दी कि 'वुमनिया' शिमला में आयोजित फ़िल्म फेस्टिवल में भी प्रदर्शित की जाएगी।
गंउवा बनाव क्रंतिकरिया, नजरिया खोल .....
फ़िल्म देखकर लौटते हुए मुझे बैंड के संगीत के बजाय इन महिलाओं के समूह गान की याद आयी। फ़िल्म में उनके दो समूह गान हैं। पहला गीत आजाद भारत में मौजूद समाजार्थिक विभाजन को बेहद सधे किंतु स्पष्ट तरीके से सामने लाता है - सहज-सरल शब्दों में, खान-पान, पहनने-बिछाने और रहन-सहन के बुनियादी पैमानों के जरिये। भूलना नहीं चाहिये कि 70' के दशक में ऐसे कई-कई जनगीतों ने उस समय की जनभावना को लोकप्रिय तरीके से अभिव्यक्त किया था और इसी जनभावना ने ही संगठित रूप लेते हुए अपने बिहार के भोजपुर, मगह और मिथिला में एक बड़े जनविद्रोह की रचना कर डाली थी।
दूसरा गीत इस विषय में संदेह की जरा भी गुंजाईश नहीं रहने देता। संयोगवश तीन दिनों पहले ही पटना के गांधी मैदान में आयोजित हुई अपनी पार्टी भाकपा-माले की रैली में बिहार के खेत-खलिहानों से आई महिला साथियों के समूहगान में मैंने यही गीत उसके मूल रूप में सुना था -
गंउवा बनाव क्रंतिकरिया
नजरिया खोल ए भईया!
सरगम बैंड की महिलाएं इसी गीत के एनजीओ संस्करण को गा रही थीं। 'क्रंतिकरिया' की जगह 'अधिकरिया' और 'भईया' के बदले 'दीदी' - बस यही फर्क था।
एक नजर इधर भी
व्यस्तताओं के बीच रहते हुए भी मैं प्रायः अपने पार्टी आधार में शामिल असंख्य दलित-महादलित टोलों में से कुछ में जाने का अवसर निकाल ही लेता हूँ। ऐसे हर टोले में मैंने बैंड बाजा दल पाये हैं। शादी-ब्याह के दिनों में जब खेती और घर-मकान बनाने का काम नही रहता, यह आमदनी का एक जरिया है। यह कम कठिन या प्रतियोगी काम नहीं है और उन्हें कोई सरकारी/गैर सरकारी सहायता, प्रोत्साहन या संरक्षण भी नहीं मिलता।
मुझे ठीक-ठीक पता नहीं कि सरगम बैंड की व्यावसायिक सफलताएं कितनी हैं? मुझे इस बैंड की कलात्मक दक्षता का भी सही अंदाज नहीं है। फ़िल्म के एक दृश्य में जहां वे अपने ही ट्रेनर की शादी में प्रदर्शन कर रही हैं, एक अन्य बैंड पार्टी की भी मौजूदगी देखकर यह जिज्ञासा और बढ़ जाती है।
हम सब यह भी बखूबी जानते हैं कि हमारे राज्य में महिला नर्तकियों के जो सैकड़ों समूह हैं उनका सबसे बड़ा हिस्सा इन दलित-महादलित महिलाओं के बीच से आया है। नाच मंडली व थियेटर-आर्केस्ट्रा ग्रुप के सदस्य व संचालक के रूप में जीवन-यापन कर रही ये महिलायें आज भी सुरक्षित व सम्मानित जीवन की मुन्तज़िर हैं। उस दिन की मुन्तज़िर हैं जिस दिन 'तमाम दुःख उनके लिये अचरज बन जाएंगे।' जब किसी 'बबीता' को बीच बाजार भरी भीड़ में निर्वस्त्र कर घुमाने और लात-घूंसों से पीटने की घटनाएं नहीं होंगी।
सरगम बैंड दल की एक सदस्य की किशोर वय बच्ची की आंखों से मैं उनके भविष्य के सपने देखता हूँ। यकीनन, उसमें मां की तरह ही बैंड बजाने का सपना कत्तई नहीं है।
आइये, हम सब उनके सच्चे सगे-सम्बंधी और बंधु-बांधव बनें और उसके सपनों में बसे उस एक दिन को लाने का पुरजोर यत्न करें। लेकिन, तब जरूरी है कि हम उनकी एक नई और सही-सही ब्रांडिंग करें.
- संतोष सहर
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