नारी मुक्ति का सवालः मार्क्सवाद के परिप्रेक्ष्य में- का. विनोद मिश्र
नारी मुक्ति आज भी करीब-करीब सारी दुनिया के नारी समाज का नारा है। इसका मतलब हुआ कि मानवता का आधा हिस्सा आज भी पराधीन है। हम सर्वहारा की मुक्ति की बात करते हैं,किसानों की मुक्ति की बात करते हैं, राष्ट्रों की मुक्ति की बात करते हैं। राष्ट्रों की मुक्ति से हमारा मतलब उपनिवेशवादी, नवउपनिवेशवादी ताकतों के आर्थिक-राजनीतिक शिकंजे से मुक्ति होता है। दुनिया के बहुत से राष्ट्र मुक्त हैं और बाकी में मुक्ति की लड़ाई चल रही है। किसानों की मुक्ति से हमारा मतलब सामंती जकड़नों से मुक्ति होता है। दुनिया के बहुत से देशों के किसान मुक्ति हासिल कर चुके हैं और अन्य स्थानों पर भी वे संघर्षरत हैं।सर्वहारा मुक्ति से हमारा मतलब उजरती श्रम से मुक्ति होता है। सर्वहारा ने भी कई देशों में अपनी लड़ाईयां जीती थीं या जीती हैं। महिलाएं राष्ट्र का , किसानों का , सर्वहारा का हिस्सा हैं। इसलिए इन सारे मुक्ति संघर्षों में वे इस या उस हद तक हिस्सेदार हैं। लेकिन इस सबके बाद भी नारी मुक्ति संघर्ष की अपनी विषेषताएं हैं, अपनी स्वायत्तता है।
नारी मुक्ति का सवाल जब उठता है तो यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि नारी पराधीन है, गुलाम है। वर्तमान सामाजिक व्यवस्था का रेशा-रेशा पुरूषों द्वारा पुरूषों के लिए निर्मित है।पुरूषों द्वारा नारी पर थोपी हुई गुलामी का ठोस रूप है घर की चारदीवारी में नारी को कैद रखना और उसे संतान उत्पत्ति की मशीन समझना। सर्वहारा , किसान या राष्ट्र जहां अपनी मुक्ति अपने विरोधी तत्व का नाश करके ही अर्जित कर सकते हैं ,वहीं नारी मुक्ति पुरूषों के विनाश के जरिए नहीं बल्कि नारी-पुरूष के बीच समानता के मानवीय संबंधों को स्थापित करने के जरिए ही हासिल हो सकती है।
कहते हैं एक समय ऐसा था जब नारी के घर के कामों का महत्व ज्यादा था, जब समाज मातृसत्तात्मक समाज के रूप में जाना जाता था, इस समाज में वर्ग विभाजन नहीं था, व्यक्तिगत संपत्ति नहीं थी। खेतों में लोहे के औजार का प्रचलन जब शुरू हुआ तब अतिरिक्त श्रम के लिए मनुष्य के एक हिस्से ने दूसरे हिस्से को दास, यानी सर्वहारा बनाया। समाज वर्गों में बंट गया, व्यक्तिगत संपत्ति का जन्म हुआ और यहीं से पुरूष सत्ता का भी विकास हुआ। घर की मालकिन की सामाजिक मर्यादा गिरती गई। सर्वहारा की गुलामी और नारी की गुलामी एक ही समय और एक ही तरह के कारणों से शुरू हुई। इन दोनों पीडि़तों के संघर्षों के बीच शायद इसलिए एक स्वाभाविक समानता है। नारी अगर सबसे ज्यादा मुक्त रही भी है तो सर्वहारा परिवारों में।
नारी से गुलामी मनवाने के लिए पुरूषों ने कितने धार्मिक रीति-रिवाज बनाए, कितनी सामाजिक संहिताएं बनाईं। हिन्दू समाज में तो पति को ही परमेश्वर बना दिया गया और यहां तक कि पति की मृत्यु के बाद पत्नी को सती तक होने को मजबूर कर दिया गया। आज जमाना काफी बदला है।तकनीकी विकास ने ऐसी परिस्थिति तैयार की है जिससे नारी और पुरूष के बीच शारिरिक क्षमता का फर्क उत्पादन प्रक्रिया में कोई अर्थ नहीं रखता।बड़े पैमाने पर महिलाएं घर की चारदीवारी से बाहर निकली हैं। नारी मुक्ति संघर्ष में भी महिलाओं ने काफी सफलताएं अर्जित की हैं। हमारे देश में भी बहुत से कानून बने हैं, सुधार हुए हैं जिन्होंने नारी मुक्ति संघर्ष को नई गति प्रदान की है।
बराबरी के लिए नारी का संघर्ष दरअसल एक ऐसी व्यवस्था के लिए संघर्ष है जिसमें बराबरी हासिल करने की आर्थिक ,सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियां मौजूद हों।ऐसा समाज एक समाजवादी समाज ही हो सकता है, जो व्यक्तिगत संपत्ति और वर्ग विभाजन को समाप्त करेगा, जिसमें नारी का प्रथम परिचय घर में उसकी भूमिका से नहीं समाज में उसके योगदान से होगा, जहां संतानोत्पत्ति पर नारी का अपना नियंत्रण होगा। इसलिए कम्यूनिज्म की विचारधारा के मार्गदर्शन में ही नारी मुक्ति का संघर्ष अपनी अंतिम मंजिल तक पहुंच सकता है। पश्चिम का नारीवादी आंदोलन जब यह महसूस करता है कि यूरोप में समाजवाद के पतन ने उसके आंदोलन को भी कमजोर किया है तब वह समाजवाद और नारी मुक्ति के बीच अभिन्न रिश्ते को ही उजागर करता है।
कम्यूनिस्ट इंटरनेशनल ने अपने कार्यक्रम में घोषणा की थी- कानून और वास्तविक जीवन में भी पुरूष और नारी के बीच सामाजिक समानता, पति-पत्नी संबंधों व पारिवारिक संहिता में क्रांतिकारी परिवर्तन, मातृत्व को एक सामाजिक कार्य की मर्यादा, शिशु व किशोरों की देखभाल व शिक्षा की जिम्मेदारी समाज के हाथों में और ऐसी तमाम विचारधारा व परंपरा के खिलाफ अनवरत संघर्ष जो नारी को गुलाम बनाते हैं। नारी मुक्ति संघर्ष में यही कार्यक्रम आज भी आपकी बुनियादी दिशा निर्धारित करता है।
1. कम्युनिस्ट नारी संगठन को सर्वप्रथम पत्रिका और प्रचार के मौखिक माध्यमों के जरिए ऐसी सारी विचारधाराओं व परम्पराओं के खिलाफ जिहाद छेड़ना होगा जो नारी को गुलाम बनाते हैं।आज के भारतीय संदर्भ में यह और भी जरूरी है क्योंकि धर्म की आड़ में समाज की सबसे प्रतिक्रियावादी ताकतें नारी को घर की चारदीवारी में कैद रखना चाहती हैं, पुराने सामाजिक-पारिवारिक मूल्यों को फिर से स्थापित करना चाहती हैं।पीछे की ओर इनकी यात्रा में यहां तक कि सती प्रथा का गुणगान भी शामिल है। आपको याद रखना होगा कि सारे भगवान पुरूषों के बनाए हुए हैं जिनकी विशालकाय मूर्तियों के सामने नारी को भयाक्रांत और धर्मभीरू बनाया जाता है, यहां तक कि देवियों का आविष्कार भी पुरूषों ने किया है। नारी को नारी के रूप् में सम्मान हासिल करने के लिए देवी का रूप् लेना पड़ेगा, जबकि सबसे अकर्मण्य पति भी नारी के लिए परमेश्वर है।सारी आचार संहिताएं पुरूषों ने बनाई हैं और उन्हें दैवी जामा पहना कर मानने के लिए नारी को मजबूर किया गया है।
2. कम्युनिस्ट नारी संगठन को पुरूष और नारी के बीच सामाजिक समानता के लिए प्रगतिशील कानून बनाने के लिए जिस तरह लड़ना है , उससे भी अधिक इन कानूनों को लागू करने के लिए संघर्ष करना है। कानून चाहें जितने भी प्रगतिशील क्यों न हो , नौकरशाही और तमाम सामाजिक संस्थाओं के सामंती रुख के चलते अपने आप कुछ लागू नहीं होता। इन संस्थाओं में न्याय पालिका भी अपवाद नहीं है।
3. कम्युनिस्ट नारी संगठन महिलाओं को अपने घर की चारदीवारी के खिलाफ संघर्ष के लिए प्रेरणा देगा, अपने-अपने क्षेत्र में नारी उत्पीड़न की खास-खास घटनाओं के खिलाफ महिलाओं को संगठित करेगा, समाज की निरंकुश ताकतों के द्वारा जनसंघर्षों के दमन में नारी के विशेष उत्पीड़न को अपना निशाना बनाएगा। इसी तरह कदम-ब-कदम महिलाओं की चेतना और संघर्षशील मानसिकता आगे बढ़ेगी और नारी आंदोलन राजसत्ता से टकराएगा।
4. कम्युनिस्ट नारी संगठन को महिलाओं को किसानो-मजदूरों के जनआंदोलनों में , राजनीतिक आंदोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने के लिए प्रेरित करना होगा। कोई भी जनआंदोलन तब तक जनआंदोलन नहीं बनता है जब तक महिलाओं की बड़ी संख्या उसमें हिस्सा नहीं लेती हो। यह हिस्सेदारी नारी मुक्ति आंदोलन का निषेध नहीं करती है बल्कि महिलाओं में आत्म विश्वास पैदा करती है और अपनी शक्ति का एहसास कराती है, पुरूषों के साथ सहज-स्वाभाविक संबंधों की ओर ले जाती है, घरेलू पारिवारिक रिश्तों में अनजाने में ही एक परिवर्तन लाती है और इस तरह नारी मुक्ति संघर्ष को व्यापक आधार प्रदान करती है।
5. कम्युनिस्ट नारी संगठन महिलाओं के छोटे या बड़े हर प्रतिवाद को, चाहे वह किसी भी संगठन के झंडे तले हो, अवश्य ही समर्थन देगा। बुर्जुआ नारीवादी आंदोलन का भी हमारे देश में विशेष सकारात्मक महत्व है।क्योंकि उसे भी सामंती जकड़नों को अपना निशाना बनाना पड़ता है।और यहां वामपंथी संगठन ही उनके स्वाभाविक मित्र हो सकते हैं। सामंती - सांप्रदायिक हमलों की रोशनी में इन आंदोलनों के साथ वामपंथी नारी संगठनों का मोर्चा बनाना अवश्य ही संभव है और जरूरी भी।
6. कम्युनिस्ट नारी संगठन पति-पत्नी संबंधों व पारिवारिक संहिता में क्रांतिकारी बदलाव को भी अपना नारा बनाएगा। रूसी क्रांति के बाद 1924 में कोमिन्तर्न ने अपनी घोषणा में कहा था - जब तक परिवार और पारिवारिक संबंधों की मान्यताएं नहीं बदलेंगी, क्रांति नपुंसक ही बनी रहेगी। आज मुस्लिम महिलाएं भी प्रचलित तरीकों के खिलाफ आवाज बुलंद करने के लिए पर्दे से बाहर निकल रही हैं। आपको अवश्य ही उनका समर्थन करना चाहिए। मैंने बिहार में जनवादी शादियों के बारे में सुना है जिसमें पुरोहितों और आडंबरों की जगह सीधे-साधे तरीके से शादी की जाती है। यह जरूर अच्छी बात है।लेकिन जनवादी शादी का मतलब होता है नारी को अपना साथी खुद चुनने की स्वतंत्रता और शादी के बाद पारिवारिक जिम्मेदारियों में सहभागिता। इन जनवादी शादियों में, पार्टी के अंदर तथाकथित क्रांतिकारी शादियों में क्या यह बात लागू होती है ? पार्टी के अंदर तथाकथित क्रांतिकारी शादियों के भी अधिकांश में ये नीतियां शायद ही लागू होती हैं।
7. आज तक महिलाओं की प्रगति के लिए किए गए सुधारों में शायद नारियों के अपने संघर्षों से पुरूषों के प्रगतिशील हिस्सों की भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण रही है। कम्युनिस्ट नारी संगठन का विशेष कर्तव्य है नारियों की अपनी भूमिका को बढ़ाना।कारण, अंततः नारी को अपनी मुक्ति खुद हासिल करनी होगी।यहां तक कि हमारी पार्टी में भी महिला कार्यकर्ताओं की मर्यादा-हानि की घटनाएं घटित होती हैं। कुछ-कुछ पुरूष कार्यकर्ताओं द्वारा आम महिलाओं के प्रति बहुत ही गलत आचरणों की रिपोर्ट आती हैं। हम पार्टी संस्थाओं की ओर से अवश्य ही इन मामलों में कदम उठाते हैं। फिर भी, मुझे लगता है कि इन मामलों में कम्युनिस्ट नारी संगठन को पार्टी पर निगरानी रखने और दबाव पैदा करने की भूमिका का भी पालन करना चाहिए।
नारी-पुरूष के बीच प्राकृतिक विभाजन को छोड़कर बाकी सारे विभाजन कृत्रिम हैं। ऐतिहासिक विकास के एक दौर ने इन विभाजनों को संस्थाबद्ध रूप दिया है। ऐतिहासिक विकास का दूसरा दौर, जो शुरू हो चुका है, इन सारे विभाजनों का खात्मा कर देगा और मानव प्रगति के दो रूपों के बीच का संबंध जब सहज,स्वाभाविक और बिरादराना हो उठेगा, तभी मानव जाति अपनी खोई हुई अखंड सत्ता को फिर से वापस पा सकेगी। इस मंजिल की ओर जानेवाला रास्ता एक ऐसी क्रांति से होकर गुजरेगा जिसके परचम पर लिखा होगा- ‘समाजवाद और नारी मुक्ति’।
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