मानदेय में दम नहीं ! न्यूनतम वेतन से कम नहीं !!

दिल्ली आशा कामगार यूनियन (ऐक्टू) द्वारा 6 जून को न्यूनतम वेतन के अनुरूप वेतन लागू करने की मांग को लेकर मुख्यमंत्री आवास पर धरना-प्रदर्शन किया गया। धरना-प्रदर्शन में विभिन्न इलाकों से आशा वर्कर्स ने हिस्सा लिया और अपनी मांगे बुलंद की।

आशा वर्कर्स के एक प्रतिनिधि मंडल ने मुख्यमंत्री आवास पर जाकर अपना ज्ञापन सौंपा और सरकार से साफ-साफ ये बात उठायी कि हमारी मांग न्यूनतम वेतन लागू करने की है और उससे कम पर कोई बात नहीं होगी। आशा वर्कर्स की इस प्रस्ताव को दिल्ली सरकार विधानसभा में पारित करे। दिल्ली में कार्यरत सभी आशाओं को न्यूनतम वेतन के अनुरूप वेतन दिया जाए। उससे कम देना आशाओं के साथ अन्याय है। आशा वर्कर्स के लिए डीटीसी के बसों में बस पास की सुविधा लागू की जाए।
दिल्ली आशा कामगार यूनियन (ऐक्टू) आशा कर्मियों के अधिकारों को लेकर संघर्षरत है. इसी क्रम में दिल्ली विधानसभा के विभिन्न विधायकों को आशा कर्मियों के मास डेलिगेशन के साथ दिल्ली आशा कामगार यूनियन द्वारा यह ज्ञापन सौपा गया कि चुने हुए प्रतिनिधि होने के नाते वे विधानसभा में इस प्रस्ताव को लेकर आयें कि आशा कर्मियों को न्यूनतम वेतन के बराबर वेतन दिया जाए, उनको सरकारी कर्मचारी का दर्जा दिया जाए तथा आशा कर्मियों के अधिकतर कार्य फिल्ड संबंधी है, अतः उन्हें डीटीसी के बसों में बस पास की सुविधा दी जाए. प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं को घर-घर पहुँचाने वाली आशा कर्मियों से पूरे साल नियमित काम लेने के एवज में उन्हें थोड़ा-सा मानदेय (मात्र 1500 रुपये) दिया जाता है जोकि सरासर उनके श्रम का शोषण है. सरकारी स्कीम के तहत नियमित काम करने के बावजूद भी उन्हें सरकारी कर्मचारी का दर्जा नहीं प्राप्त है. आशा कर्मियों की मांग को एक प्रमुख राजनीतिक मांग के रूप में सामने आने की ज़रूरत है.
इसी क्रम में दिल्ली के विभिन्न इलाकों जैसे खानपुर, डेरा, देवली, फतेहपुर बेरी, भाटी माईन्स, छतरपुर, महरौली, पालम, द्वारका, मुस्तफाबाद, नरेला तथा संगमविहर आदि स्थानों की आशा कर्मियों ने इस मुहीम में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. आने वाले दिनों में दिल्ली सरकार के केंद्र सरकार के खिलाफ ये लडाई और तेज़ होगी.
सरकार की मजदूर-विरोधी नीतियों की मार झेलते मजदूरों में स्कीम वर्कर्स का नाम अग्रणी है. केंद्र सरकार के स्कीम के तहत काम करने के बावजूद स्कीम वर्कर्स को कर्मचारी का दर्जा नहीं दिया जा रहा है. ‘सेवा’ के नाम पर शोषण झेलती आशा, आंगनवाडी, मिड-दे व हेल्पर आदि में कार्यरत अधिकतर महिलाएं हैं. जिनके प्रति सरकार की नज़रअंदाज़गी जग-जाहिर है. 2018 के बजट में भी सरकार ने स्कीम वर्कर्स के लिए कोई बजट नहीं बढ़ाया. एक तरफ मोदी सरकार नफरत, हिंसा और बलात्कार की राजनीति फैला रही है और दूसरी तरफ मजदूरों के हक़-अधिकारों के सवाल पर चुप्पी साधे है. 45वें भारतीय श्रम सम्मेलन की सिफारिशों के अनुरूप सभी स्कीम वर्कर्स को सरकारी कर्मचारी का दर्जा मिलना चाहिए, वह अभी तक नहीं मिला है. और स्कीम योजनाओं में निजीकरण की संभावनाएं लगातार बढ़ रही हैं. स्कीम वर्कर्स को बोनस, पीएफ, यात्रा भत्ता व खतरा भत्ता जो मिलना चाहिए, उसका कोई नामोनिशान नहीं है. अस्पतालों में आशाओं के साथ डॉक्टरों व अन्य कर्मचारियों द्वारा होने वाले अपमानजनक व्यवहार पर सरकार व प्रशासन चुप्पी साधे हुए है. ऐसे समय में व्यापक मजदूर एकता बनाने की जरुरत है ताकि मजदूर-वर्ग के मुद्दों की जीत हो और धर्म और जाति के नाम पर गरीब जनता को बांटने की साजिश पर लगाम लगे.
आज देश भर में लगभग 8 लाख के अधिक आशा कार्यरत है. आशाओं के बदौलत ही यह संभव हो पाया है कि आज जच्चा और बच्चा दोनों की मृत्युदर में गिरावट आयी है. माँ और बच्चे का सम्पूर्ण टीकाकरण संभव हो पाया है. समाज में एक पूल के रूप में कार्यरत आशाओं की स्थिति सबसे अधिक दयनीय है. देश की राजधानी दिल्ली में चौबीस घंटे काम करने के बावजूद भी मात्र 1500 रुपये मानदेय मिलता है और अधिकतर समय उसमें भी घोटाला होता. आज इस बात को मजबूती से उठाने की ज़रूरत है कि सिर्फ इन्सेन्टिव बढ़ा देने से काम नहीं चलेगा, पक्की नौकरी और पूरा वेतन की गारंटी करनी होगी.
आशाओं की मांग को लेकर राज्य सरकार व केंद्र सरकार की तरफ से लगातार अनसुनी रही है. अलग-अलग राज्यों में जो असमान मानदेय लागू है, उसको समाप्त कर सातवें वेतन आयोग को लागू करते हुए सभी आशाओं को 18,000 रुपये वेतन मिलना चाहिए. इन सभी मुख्य मांगों के साथ पूरे देश में आशाएं संघर्षरत हैं और सम्मानपूर्ण रोज़गार के सवाल को लेकर सड़क पर अपनी लड़ाई लड़ रही हैं.

(साभार: समकालीन जनमत)

Comments

Popular Posts