मानवाधिकार और स्त्रियों पर सांप्रदायिक हिंसा
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद मानवाधिकार के लिए आवाजें उठनी शुरू हुईं, तब मानवाधिकार आयोग अस्तित्व में आए. मानवाधिकार संधि दोनों पक्षों के व्यक्तियों और समूहों द्वारा आयोजित पक्ष को संरक्षण प्रदान करती है. इसके साथ हिंसा को पूरी तरह से खत्म करने में सरकारों और अन्य एजेंसियों की आवश्यकता भी होती है. कई देशों की सरकारें इन संधियों के प्रति नकारात्मक भावना रखती हैं. लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर नरसंहार के खिलाफ कानूनी सुरक्षा सबसे प्रमुख आवश्यकता है. मानवाधिकार मानदंडों के अनुसार दुनिया के सभी देशों की सरकारों को हिंसा से परहेज करने और इसके खिलाफ सुरक्षा प्रदान करने का आग्रह किया जाता रहा है. सांप्रदायिकता भारत के सार्वजनिक जीवन में एक व्यापक दोष की तरह है और सांप्रदायिक हिंसा इसकी एक बेहद खराब अभिव्यक्ति. सांप्रदायिक हिंसा से किसी भी देश के इतिहास में बेहद विनाशकारी परिणाम हुए हैं. आजादी के वर्षों बाद भी अल्पसंख्यक स्त्रियों को चपेट में लेने वाली सांप्रदायिक हिंसा में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं आयी है. संसार भर के किसी भी देश में जरा सी सांप्रदायिक हलचल होते ही उस देश में रहने वाली महिलाओं पर मुसीबतें पड़नी शुरू हो जाती हैं और जैसे ही स्त्री पर हिंसा शुरू होती है संसार भर में इस तरह के वाक्यों की गूंज शुरू हो जाती है कि महिलाओं को वापिस अपनी-अपनी परंपराओं की शरण ले लेनी चाहिए. जाहिर है उनका परंपरा को अपनाना माने पर्दा प्रथा, सिर झुका कर चलना, धीमी आवाज में बातें करना आदि-आदि शामिल होता है. इसमें अल्पसंख्यक स्त्रियों की हालत तो और भी खराब हो जाती है. उन्हें समाज में जगह-जगह
पर फैले दबंग लोग अलग से परेशान करते हैं और दूसरी ओर धर्मिक कठमुल्ला लोग अपने-अपने धर्मों का हवाला देकर स्त्रियों को जैसे कैद में डाल देते हैं. पिछले कुछ दशकों से पूरे संसार में सांप्रदायिक हिंसा ने कई देशों को अपनी विभीषिका में लपेट लिया जिसमें बोस्निया, युगांडा, श्रीलंका, म्यामार और भारत भी शामिल हैं.
विभाजन के दौर में स्त्रियों पर सांप्रदायिक हिंसा
भारत-पाकिस्तान के बीच विभाजन के दौरान सांप्रदायिक ताकतों ने खूनी खेल खेला था जिसमें लाखों की संख्या में स्त्रियों ने बलात्कार व हिंसा झेली और अपने परिवार गंवा दिए थे. विभाजन के दौर में महिलाओं की पीड़ा का अनुमान लगाना कठिन है. विभाजन से उत्पन्न हिंसा के दौरान दोनों समूहों ने महिलाओं को अपने कब्जे की वस्तु बनाई और अपने विरोधियों के बीच कुत्सित भावनाओं और प्रतिहिंसा का संचार करने के लिए इस्तेमाल किया. दोनों पक्षों ने जैसे अपनी जीत का उत्सव स्त्रियों के शवों पर मनाया. भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद 1956 तक चले वसूली आपरेशन के समय 22,000 मुसलमान महिलाओं को भारत से बरामद किया गया और 8,000 हिन्दू महिलाओं को पाकिस्तान से बरामद किया गया. भारत-पाक विभाजन के दौरान विभिन्न सरकारी और अनौपचारिक स्रोतों के अनुसार लगभग 75,000 से लेकर 1,00,000 महिलाएं अवर्णनीय यौन हिंसा, अपमान, अपहरण और बलात्कार का शिकार हुईं.
जातिगत हिंसा
भारत में जाति आधारित दंगे और उनमें स्त्रियों पर मार के आंकड़े हमेशा से ही अखबारी सुखिऱ्यों में रहे हैं. चाहे 1981 में फूलन देवी (उत्तर प्रदेश) का किस्सा हो या 1996 में रणवीर सेना द्वारा बथानी टोला नरसंहार (बिहार), 1968 किल्वेन्मनि नरसंहार (तमिलनाडु), 1997 लक्ष्मणपुर-बाथे नरसंहार (बिहार), 1997 मेल्वल्गु नरसंहार (तमिलनाडु), 2003 मुथंगा हादसा (केरल), 1999 बंत सिंह मामला (पंजाब), 2006 खैरलांजी नरसंहार (महाराष्ट्र), मिर्चपुर में 11 दलितों की हत्या (हरियाणा). इन सभी हिंसा का काला इतिहास बन चुके आंकड़ों ने मानवीय गरिमा को कम ही किया है.
महिलाओं के जीवन में इस प्रकार की सांप्रदायिक हिंसा का किस प्रकार घातक असर पड़ता है इसका पता राहत शिविरों में रहने वाली महिलाओं और लड़कियों से बातचीत करने वाली स्वयं सेवी संस्थाओं ने लगाया और पाया कि उनका जीवन नर्क से भी बदतर बन गया है. सिख विरोधी दंगों, 1992-93 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के दौरान हुई हिंसा, 1993 में सीलमपुर के दंगे और गुजरात का नरसंहार और 2008 में होने वाली ईसाई विरोधी सांप्रदायिक हिंसा ने स्त्रियों के जीवन में काफी तबाही मचाई है. गुजरात में हुई सांप्रदायिक हिंसा में स्थानीय प्रेस ने विशेष रूप से महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा को उत्तेजक बनाने और हिंसा को बढ़ावा देने में खतरनाक और आपराधिक भूमिका निभाई. 2002 में गुजरात में हुए दंगों के दौरान मुस्लिम महिलाओं और लड़कियों के साथ बलात्कार और विकृत यौन उत्पीड़न किया गया. न जाने कितनी ही महिलाओं के पारिवारिक सदस्यों की हत्या कर दी गयी और उनके घरों और व्यवसायों को पूरी तरह से नष्ट कर दिया गया.
सभ्य समाज की कल्पना दूर की बात है जहां आज भी राह चलती स्त्रियों को घूरती आंखों का सामना करना पड़ता है और सांप्रदायिक हिंसा के दौरान दूसरे पक्ष को पीड़ा देने के नाम पर बेकसूर स्त्रियों को निशाना बनाया जाता है। आज भी स्त्री को अपने होने की खातिर कई जोखिम उठाने पड़ते हैं और अपनी सुरक्षा के लिए अतिरिक्त सावधानी बरतनी पड़ती है। यही वह सच है जो हमने सदियों से ढोया है.
विपिन चौधरी
Comments
Post a Comment