स्त्री अध्ययन केंद्रों पर हथौड़ा क्यों

देश भर में चल रहे 163 स्त्री अध्ययन केंद्रों के अस्तित्व पर मौजूदा सरकार के शासन काल में संकट के बादल मंडरा रहे हैं. 12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) के समय यूजीसी के द्वारा बहुत से महिला अध्ययन केंद्र खोले गए थे. परंतु पिछले वर्षों में योजना आयोग के भंग होने और 12वीं पंचवर्षीय योजना के समाप्त होने के साथ ही इन केंद्रों के भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लग गया. यही स्थिति विश्वविद्यालयों में चल रहे सामाजिक बहिष्करण एवं समावेशी नीति अध्ययन केंद्रों की भी है. यानि हाशिये के बड़े समूहों - महिलाओं और दलितों-पिछड़ों की मूल समस्याओं और उसके निवारण के लिए बने अध्ययन केंद्रों को पृष्ठभूमि में डालने की कोशिश चल रही है.

Source: indianculturalforum.in


29 मार्च 2017 को यूजीसी की अधिसूचना के अनुसार इन महिला विमर्श केंद्रों को आगामी एक वर्ष के लिए वित्तीय निधि (फंड) का विस्तार किया जाएगा. इस नोटिस ने इन केंद्रों में कार्यरत शिक्षक, शोधार्थी, छात्रा-छात्राओं और कर्मचारियों के बीच अनिश्चितता एवं भय का माहौल उत्पन्न किया कि आगे क्या होगा ? 

आइएडब्ल्यूएस (इंडियन एसोसिएशन आॅफ वीमेंस स्टडीज) ने तुरंत ही इन केंद्रों में कार्यरत लोगों और अकादमिक जगत को इसके खतरों के विषय में सूचित किया और विमर्श के लिए एकजुट किया. इसी बीच 16 जून 2017 को यूजीसी की एक चेतावनी भरी नोटिस मिली जिसमें लिखा था कि 30 सितंबर 2017 तक योजना मद (प्लान हेड) अंतर्गत किए गए खर्चों को ही मान्यता मिलेगी.

23 अगस्त 2017 को देश भर के महिला अध्ययन केंद्रों का एक राष्ट्रीय कन्वेंशन दिल्ली में बुलाया गया जिसमें 200 से भी अधिक लोगों की भागीदारी हुई. इस कन्वेंशन के प्रस्तावों में प्रमुख है: यू.जीसी महिला अध्ययन केंद्रों को तब तक वित्तीय सहायता दे जब तक ये कोर्स विश्वविद्यालयों और काॅलेजों के विभागों में पूर्णतया नियमित और एकीकृत नहीं हो जाते; चूंकि महिला अध्ययन केंद्र अभी तक उच्च शिक्षा की संरचना में हाशिये पर रहे हैं, इन्हें केंद्रीय वित्तीय सहायता पूर्णतया देनी चाहिए ताकि ये केंद्र विश्वविद्यालयों और काॅलेज के अकादमिक और प्रशासनिक ढांचे में स्थायी रूप से नियमित हो सकें; और महिला अध्ययन के कोर्स सभी स्तरों पर और सभी विधाओं - जिसमें कानून, स्वास्थ्य विज्ञान, विशुद्ध विज्ञान भी हों - में खुलें.

24 अगस्त 2017 को यू.जी.सी. ने एक सार्वजनिक नोटिस के माध्यम से यह सूचित किया कि यू.जी.सी का ऐसा कोई प्रस्ताव या उद्देश्य नहीं है कि महिला अध्ययन केंद्रों की वित्तीय सहायता में कटौती करे या बंद करे. 25 अगस्त 2017 को आई.ए.डब्ल्यू. एस ने अपने सदस्यों को इस नोटिस के विषय में सूचित करते हुए हर्ष व्यक्त किया कि तत्कालीन संकट टल गया है. 

उच्च शिक्षा के एक महत्वपूर्ण विषय महिला-विमर्श केंद्रों पर सरकारी हथौड़ा क्यों चलाने को तैयार है और इन केंद्रों से क्या खतरे हैं? इसे समझने के लिए हमें भारत में इन महिला अध्ययन केंद्रों की स्थापना और निहितार्थों का अवलोकन करना चाहिए. 

भारत में महिला-विमर्श 19वीं सदी से शुरू हुआ, जब धर्मिक-सामाजिक सुधर आंदोलनों में दलितों, पिछड़ों और महिला उत्थान को केंद्रित किया गया. महिलाओं की व्यवस्था होने लगी यहां तक कि स्वयं महिलाएं भी अपनी स्थिति के विषय में और स्त्री मुक्ति पर लिखने लगीं. सावित्री बाई फुले और पंडिता रमाबाई जैसे नाम प्रमुखतम हैं. क्रमशः राष्ट्रीय आंदोलनों में औरतों की भागीदारी से स्त्री-प्रश्न मुखरित हुए. यूरोप-अमरीका में जहां 18वीं सदी से ही नारीवादी इतिहास लेखन प्रारंभ हो चुका था वहां महिला अधिकारो-मताधिकार और काम के अधिकार 19वीं सदी के महिला-आंदोलन और विमर्श के मुख्य मुद्दे बन गए थे और महिलाओं के प्रतिरोध्, सक्रियता और योगदान पर लिखा जाने लगा था.

भारत में भी - औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक काल के महिला आंदोलनों से स्त्री-विमर्श बाहर आया. और स्त्री की असमानता, असुरक्षा, यौन उत्पीड़न, पिछड़ापन, अशिक्षा, सामाजिक विभेद इत्यादि पर अध्ययन होने लगे. 1970 के दशक में महिला अध्ययन एक बौद्धिक खोज और संस्थागत कार्य के तौर पर उभरा. इसका इतिहास चार दशकों का है. सबसे पहले स्त्री अध्ययन की अवधारणा समाज विज्ञान और मानविकी की शाखा के रूप में हुई, परंतु अब यह विषय अंर्तविषयक ज्ञान की एक विशिष्ट शाखा के रूप में विकसित हो चुका है और इसका गहरा संबंध् समाज विज्ञान (सोशल साइंसेज) के विभिन्न विषयों समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीति विज्ञान, इतिहास और साहित्य के साथ जुड़ चुका है. इस प्रक्रिया के दौरान इन विषयों के विद्यमान अवधारणाओं, उपकरण (टूल), तकनीक और पद्धतियों पर सवाल खड़े किए गए, नयी दृष्टि से शोध् किए गए. 

सन् 1974 में सरकार द्वारा गठित सीएसडब्ल्यूआइ (कमिटी आॅन स्टेटस आॅफ वीमेन इन इंडिया) की रिपोर्ट "टुवर्ड्स इक्वैलिटी" प्रकाशित हुई तो स्त्रियों की बदहाली-अशिक्षा, कुपोषण, भू्रण हत्या, बाल विवाह, बेरोजगारी, यौन शोषण, असमान मजदूरी, गरीबी जैसे सवाल पूरे देश में गूंजने लगे. सरकार ने भी यह महसूस किया कि गरीब ग्रामीण महिलाओं को इस स्थिति से उबारना चाहिए. इसका परिणाम 1974 में महिला अध्ययन शोध् इकाइयों की स्थापना के रूप में आया. पहला महिला अध्ययन केंद्र मुंबई के एसएनडीटी महिला विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में खुला जिसकी डायरेक्टर नीरा देसाई थीं. इस प्रकार स्त्रियाँ "शिक्षा प्राप्त करने की पात्र" से "शोध एवं अध्ययन की नयी विषयवस्तु" बनीं. महिला अध्ययन केंद्र इस प्रकार रूपांतरण के माध्यम बने जो न केवल राज्यनीति बल्कि महिलाओं के अपने विषय में सोच को भी परिवर्तित करें. इन केंद्रों के संस्थाकरण ने नारीवादी विचारों जैसे पितृसत्ता की नारीवादी अवधरणा, जेन्डर और सेक्स का अंतर, श्रम का लैंगिक विभाजन, जेन्डर असमानता, अन्याय आदि का प्रवेश शिक्षा शास्त्रीय जगत में कराया और भाषा एवं विश्लेषण में अंतर आया. 

1987 से महिला अध्ययन केंद्रों की स्थापना 9 चुनिंदा विश्वविद्यालयों में शिक्षण, शोध और प्रसार की दृष्टि से की जाने लगी. 1986 की नयी शिक्षा नीति में यू.जी.सी ने भारतीय विश्वविद्यालयों में स्त्री अध्ययन केंद्रों के विकास की गाइडलाइन्स दी थी. फिर भी, विश्वविद्यालयों के अनुशासनिक अधिक्रम में यह कोर्स हाशिये पर ही रहा और परंपरागत कोर्स की भांति मुख्यधारा में नहीं आ सका.

स्त्री अध्ययन की शुरुआत से उच्च शिक्षा और महिला संबंधी धारणाओं के क्षेत्र में दूरगामी प्रभाव दिखलाई दिए. एक ओर महिला आंदोलनों पर किए गए शोध ने गहराई से समाज के अंदरुनी पितृसत्तात्मक ढांचे का विश्लेषण किया तो दूसरी ओर इस पितृसत्ता को कट्टरपंथ किस तरह से मजबूत कर रहा है, इसका विश्लेषण अध्ययन का
अंग बना. अब महिला नहीं, महिला आंदोलनों पर फोकस होने लगा. महिला एक्टीविज्म (सक्रियता) और विद्वता के बीच जुड़ाव होने लगा. 21वीं सदी के नारीवाद में दलित-बहुजन नारीवादी आंदोलन और अध्ययन, आदिवासी महिला आंदोलन, मुस्लिम महिलाओं, ट्रांसजेंडर के बीच वर्ग, जाति, यौनिकता के परिप्रेक्ष्य में अध्ययन और शोध किए जाने लगे. 

क्रमशः महिला अध्ययन केंद्रों में देश को प्रभावित करने वाले मुद्दे जैसे हिंसा, संप्रदायीकरण, बढ़ता जाति विद्वेष, संगठित क्षेत्रों में महिलाओं की छंटनी, खगोलीकरण के दुष्प्रभाव और कट्टरपंथ के हमले जैसे मुद्दे भी स्त्री अध्ययन के सिलेबस में सम्मिलित होते गए. यानि वो सारे मुद्दे जिसका राजनीतिक प्रभाव स्त्रियों के समावेशीकरण में बाधक बनता है और स्त्रियों के विकास के रास्ते को संकीर्ण बना रहा है, उसकी चर्चा कक्षाओं, शोध् पत्रों और स्त्री विमर्शों में खुलकर होने लगी. 

सरकार की नव-पूंजीवादी नीतियां जो भारत की अधिकांश जनता को आर्थिक विषमता की मार झेलने को विवश कर रही है, अध्ययन और चिंतन का विषय बन रही है. यह चेतनता निश्चित तौर पर मौजूदा सत्ता के लिए खतरनाक साबित हो रही है. 

’90 के दशक से जाति और संप्रदाय के बदलते हुए रूप देश में महिला आंदोलनों और विमर्श को गंभीर चुनौतियां दे रहे हैं. दक्षिणपंथी राजनीति प्रच्छन्न और घातक रूप से शिक्षा संस्थानों, नीतियों और विचारधाराओं में प्रवेश कर चुकी है. सरकारी संस्थानों एवं अन्य शोध संस्थानों का भगवाकरण हो रहा है. इस दक्षिणपंथी राजनीति के पैर केवल स्त्री अध्ययन में ही पसर रहे हैं, बल्कि दलित-अध्ययन, महिला आंदोलन एवं जाति-विरोधी आंदोलनों पर भी गंभीर प्रहार हो रहे हैं. 

इसके साथ ही हाल में उच्च शिक्षा के मद में सरकारी तौर पर वित्तीय सहायता की कटौती, शिक्षा का निजीकरण, महिला अध्ययन केंद्रों की हालिया अनिश्चितता ने शिक्षा से जुड़े लोगों-शिक्षक, छात्रा, शोधार्थी और कर्मचारियों को संकट में डाल दिया है. उच्च शिक्षा के क्षेत्रा में फंड की कटौती के परिणाम - फीस में बढ़ोत्तरी और कोर्स में, सीटों में कटौती है जिसका दुष्परिणाम मुख्यतः गरीब और वंचित वर्ग के छात्रा-छात्राओं को झेलना पड़ेगा. यही नहीं उच्च शिक्षा केंद्र का स्वरूप संभ्रांतवर्गीय (एलीट) हो जाएगा. योजना आयोग के विलय के पश्चात् उच्च शिक्षा को दिए जाने वाले फंड में प्रचंड रूप से कटौती हुई है, नीति आयोग शिक्षा को निजी पणबानों (स्टेक होल्डरस) के हाथों में देना चाहता है, यानि महंगी और आम जन से दूर होती शिक्षा कटौती का एक अन्य महत्वपूर्ण तत्व यह भी है कि यू.जी.सी और अन्य उच्च शिक्षा संस्थानों के गैर-योजना आवंटनों में घटोत्तरी.

इसलिए आज महिला आंदोलनों और महिला अध्ययनों के बीच संबंध बनने और गहरे होने चाहिए ताकि वे शक्तियां जो हमारे विचारों और अस्तित्व पर वार करती हैं, उनका मुकाबला हो सके. राज्य सत्ता भारत में उच्च शिक्षा की स्वायत्तता को संकुचित करने पर अमादा है ताकि हाशिये के वर्गों के छात्रों का बहिष्करण हो सके. इस बदलते राजनीतिक संदर्भ में प्रतिबद्ध अकादमिक समुदाय एकजुट होकर बड़े जनतांत्रिक संघर्षों को खड़ा करें जिससे कि ज्ञान का मार्ग सबके लिए खुला रहे और हाशिये के समूहों जिनमें महिलाएं भी एक बड़े हिस्से के रूप
में हमेशा से सम्मिलित रही हैं, के सशक्तीकरण के लिए परिवर्तित नीतियां और परिप्रेक्ष्य बन सकें. 

नारीवादी विद्वान स्वयं को सिर्फ अध्ययन तक सीमित रखते रहे हैं और फील्ड (क्षेत्रों) में काम कर रहे महिला एक्टीविस्टों एवं खेत-मजदूरों, किसानों, आदिवासियों, दलितों और कामगारों द्वारा चलाए जा रहे जन-संघर्षों से परहेज रखते रहे हैं. इससे स्त्री विमर्श और महिलाओं की एकजुटता कमजोर हुई है. इसलिए महिला विमर्श और महिला एक्टीविज्म के बीच के इस फासले को पाटने की जरूरत है. 

- भारती एस. कुमार

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